Tuesday, August 3, 2010

मानव संसाधन प्रबंधन का आधार: शैक्षणिक विषय चयन

शैक्षणिक प्रबंधन का आधार : विषय चयन




मानव संसाधन के विकास का आधार शिक्षा है। प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों का श्रेष्ठतम विकास सुनिश्चित कर विकास के सोपानों को पार कर शिखर पर पहुंचना चाहता है। इस उद्देश्य से राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक प्रबंधन हेतु नीतियां विभिन्न आयोगों, संस्थाओं व विद्वानों के साथ विचार-विमर्श व चिन्तन-मनन करके तैयार की जाती हैं। शैक्षणिक प्रबंधन के बिना कोई राष्ट्र अपने नागरिकों का विकास नहीं कर सकता और अविकसित मानव संसाधन के साथ राष्ट्र के विकास की तो बात ही नहीं सोची जा सकती।


राष्ट्र के सन्तुलित विकास के लिए सभी विषयों के विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक विषय का अपना महत्व होता है। कोई भी विषय महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकाता। राष्ट्रीय नीति की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, किन्तु राष्ट्र अपने नागरिकों पर विषय थोप नहीं सकता। प्रत्येक नागरिक (विद्यार्थी) की अभिरूचि, क्षमता व आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं, जिनके अनुरूप वह अपने अध्ययन के विषय चुनता है और अपने वैयक्तिक व पारिवारिक विकास को सुनिश्चित करता है।


राष्ट्र अपनी नीतियों, आबंटित बजट व अपनी संस्थाओं के माध्यम से अपनी आवश्यकताओं के आधार पर शैक्षिक प्रबंधन की प्राथमिकताओं का निर्धारण करता है और प्राथमिकताओं के आधार पर विभिन्न वि्षयों में अध्ययन व शोधों को प्रोत्साहन देता है। वही राष्ट्र श्रेष्ठ माना जाता है, जो अपने नागरिकों को विकास के अवसर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाता है किन्तु उन्हें नागरिकों पर थोपता नहीं। अध्ययन के विषयों का चयन अन्तत: अध्येता का विशेषाधिकार है। उसमें राष्ट्र, विद्यालय, अभिभावक या शिक्षक को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हां, अपने अनुभवों व योग्यता के कारण आवश्यकता पढ़ने पर सुझाव देने की सामर्थ्य इनमें होती है। परिवार व विद्यालय को विषय चयन करने की प्रक्रिया में विद्यार्थी की सहायता करनी चाहिए किन्तु अपनी इच्छा थोपनी नहीं चाहिए। भारत में अध्ययन व कार्य की स्वतन्त्रता संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में समाहित है। यदि किसी भी स्तर पर कोई अधिकारी अपने पूर्वाग्रहों के कारण किसी को किसी विशेष विषय लेने या विशेष कार्य को करने को मजबूर करता है तो वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।


वास्तव में शिक्षा या विद्या व्यक्ति की अन्तर्निहित प्रतिभा का उद्घाटन करती है। विद्या वही है, जिससे मनुष्य स्वयं को पहचाने। अपनी अन्तर्निहित प्रतिभा के अनुरूप अध्ययन करके ही विद्यार्थी श्रेष्ठ नागरिक के रूप में विकसित हो सकता है। विद्यार्थी को विषय चयन में जागरूक रहना चाहिए। आइंस्टीन के शब्दों में, ``स्कूल को कभी भी अपनी शिक्षा में हस्तक्षेप न करने दें।´´

विद्वान यूरिपेडीज ने भी लिखा है, ``प्रत्येक व्यक्ति सब बातों में निपुण नहीं हो सकता, प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्ट उत्कृष्टता होती है।´´ वास्तव में विद्यार्थी की इसी विशिष्ट उत्कृष्टता को निखारने की जिम्मेदारी राष्ट्र, परिवार, समाज, विद्यालय व शिक्षक की होती है। किन्तु वर्तमान समय में देखने में आता है कि विद्यार्थी की इच्छा व अभिरूचि को नज़रअन्दाज करते हुए अभिभावक विद्यार्थी पर अपनी इच्छाएं थोपते हैं, जिसके कारण उसका स्वाभाविक विकास अवरूद्ध होता है। किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में किसी की मनमर्जी लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण करती है.


जुलाई 1999 में जवाहर नवोदय विद्यालय, चंबा में मेरी वाणिज्य की कक्षा में एक प्रतिभाशाली छात्रा जागृति आई थी। विषय में उसकी अभिरूचि देखकर मुझे प्रसन्नता होती थी। मेरा विचार बन रहा था कि यह छात्रा वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर सकती है। वह मुश्किल से पन्द्रह दिन ही पढ़ पाई होगी कि उसके पिता ने उसे विज्ञान लेने को मजबूर कर दिया जिसमें उसकी इच्छा बिल्कुल नहीं थी। वह विज्ञान की छात्रा होकर भी कई दिनों तक वाणिज्य की कक्षाएं लेती रही। उसे किसी तरह समझाकर उसकी कक्षा में भेजना पड़ा था। मुझे लगता है कि यह उसके साथ ज्यादती थी और वह उस विषय में कुछ विशेष नहीं कर पाई होगी। इसी प्रकार की घटना और भी देखने को मिली, जिसमें विद्यालय के प्राचार्य महोदय ने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर विद्यार्थियों को हिन्दी के स्थान पर शारीरिक शिक्षा व कला पढ़ने को मजबूर किया। विद्यार्थियों की असन्तुष्टि की वजह से विद्यालय का वातावरण खराब हुआ, विद्यार्थियों का अध्ययन प्रभावित हुआ और अन्तत: मानव संसाधन मन्त्रालय, राजभाषा विभाग व मुख्यालय के हस्तक्षेप के बाद विद्यार्थियों को हिन्दी विषय स्वीकृत करना पड़ा। इस तरह की घटनाएं नमूना मात्र हैं। अभी तक हमारी प्रवृत्ति लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। हम चाहते हैं कि विद्यार्थी को जैसा कहा जाय वह उसका अनुकरण करे।


वास्तविक बात यह है विशेषकर सरकारी कर्मचारी के लिए कि अधिकांश कर्मचारी आकड़े पूरे करना चाहते हैं। विद्यालयों के सन्दर्भ में बात करें तो बहुत कम शिक्षक व प्रधानाचार्य होंगे जो वास्तव में विद्यार्थी के विकास में रूचि लेते हैं। अधिकांश को विद्यालय के परीक्षा परिणाम को सुधारने की चिन्ता रहती है। सभी अपनी नौकरी को बचाने लायक कार्य ही करते दिखाई देते हैं। इस चक्कर में कई निजी विद्यालय तो नौवीं कक्षा में ही दसवीं का तथा ग्यारहवीं कक्षा में ही बारहवीं का पाठयक्रम पढ़ाने लग जाते हैं। कई बार विद्यालय अपने परिणाम को शत-प्रतिशत दिखाने के लिए विद्यार्थियों को छठा विषय अतिरिक्त लेने के लिए मजबूर करते हैं। यह सभी प्रवृत्तियां राष्ट्रीय शिक्षा नीति जिसमें विद्यार्थी को अधिकतम् स्वतन्त्रता देने की बात की जाती है के विरूद्ध है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को असफल करने में सबसे अधिक योगदान शिक्षकों का ही होता है। अभिभावकों, शिक्षकों व अधिकारियों के पूर्वाग्रह एक स्वतन्त्र नागरिक के रूप में विद्यार्थी के विकास में भी बाधक होते हैं। अन्तत: यूरिपेडीज ने जिस उत्कृष्टता की बात की है वह उत्कृष्टता दबी ही रह जाती है। जिसका कारण हमारे पूर्वाग्रह ही होते हैं।


भारत में माध्यमिक शिक्षा स्तर पर विषय विभाजन किया जाता है। इस स्तर तक आते-आते विद्यार्थी अपनी अभिरूचि के अनुरूप विषय चयन करने में सक्षम हो जाता है। यदि ऐसा नहीं भी हो पाता तो परिवार व विद्यालय को उसका मार्गदर्शन करना चाहिए किन्तु निर्णय उसी पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि अन्तत: उसी के जीवन का मामला है। प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में सबसे अच्छी जानकारी रखता है। इसी प्रकार विद्यार्थी के बारे में उससे अधिक अच्छी जानकारी कौन रख सकता है\ उसकी अभिरूचि, आवश्यकताएं व उसके उद्देश्य केवल वही जानता है। अत: किन विषयों का अध्ययन करना है, कितना अध्ययन करना है? यह उसी को निर्धारित करने देना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि जो अधिक समय तक किताबों में लगे रहते हैं वही जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे या अधिक अंक लाने वाले ही देश के श्रेष्ठतम् नागरिक सिद्ध होंगे। वि्षय चयन का विकल्प जब उपलब्ध होता है तो चयन करने का निर्णय करने का अधिकार विद्यार्थी का है। अभिभावक, विद्यालय व समाज को उसे इतना सक्षम बनाना चाहिए कि वह विवेकपूर्ण निर्णय कर सके। यही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व के विकास का आधार है।

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