Saturday, May 26, 2012

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण




रामकृष्ण मिशन इंस्टीच्यूट ऑफ कल्चर द्वारा विवेकानन्द के 125वें जन्म वर्ष के उपलक्ष में बंगला भाषा में प्रकाशित,`सबार स्वामीजी´ का हिन्दी भावानुवाद `सबके स्वामीजी´प्रथम हिन्दी संस्करण(१९९१) के पृष्ठ 39 पर स्वामीजी का राष्ट्र के कर्णधार युवाओं के लिए सन्देश दिया गया है। स्वामीजी तत्कालीन सर्वोच्च प्रबन्धन गुरू कहे जा सकते हैं. स्वामी जी ने मानव संसाधन प्रबन्धन को कितना महत्व दिया? इसमें स्पष्ट है. स्वामी मानव संसाधन की गुणवत्ता को भी समझते व स्पष्ट करते हैं. आप सबके साथ मानव संसाधन पर स्वामीजी के अभिप्रेरण को बांटते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामीजी का राष्ट्र के युवकों के नाम सन्देश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि स्वामीजी द्वारा दिखाया गया लक्ष्य दिखाई देने लगा है; हमें अब और भी अधिक द्रुत गति से उस तक पहुंचना है किन्तु धैर्य व सहनशीलता के साथ। आज प्रबन्धन में हम जिस समर्पण व अभिप्रेरण की मांग करते है, वह स्वामी जी के इस अभिप्रेरण में सम्मिलित है.

स्वामीजी ने युवाओं को सन्देश दिया है, ``देशभक्त बनो - उस जाति से प्रेम करो जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं।

हे ! वीर-हृदय युवक-वृन्द...... और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, सरलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ है विस्तार( विस्तार और प्रेम एक ही है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, पे्रम ही जीवन का एकमात्र गति निर्धारक है। स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहते हुए भी यह मौत है, देहावसान में भी यही स्वार्थपरता मृत्यु स्वरूप मृत्यु है...........जितने नर पशु तुम देखते हो, उसमें नब्बे प्रतिशत हैं मृत, प्रेत तुल्य क्योंकि हे युवक वृन्द! जिसके हृदय में प्रेम नहीं वह मृत के अलावा और क्या हो सकता हैर्षोर्षो हे युवकगण! तुम दरिद्र, मूर्ख एवं पददलित मनुश्य की पीढ़ा को अपने हृदय में अनुभव करो, उस अनुभव की वेदना से तुम्हारे हृदय की धड़कन रुक जाये, सिर चकराने लगे और पागल होने लगो, तब जाकर ईश्वर चरणों में अन्तर की वेदना बताओ। तब ही तुम्हें उनसे ‘ाक्ति व सहायता मिलेगी- अदम्य उत्साह, अनन्त ‘ाक्ति मिलेगी। मेरा मूल मन्त्र था- आगे बढ़ो! अब भी यही कह रहा हूं- बढ़े चलो! तब चारों और अन्धकार ही अन्धकार था, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं देख पाता था, तब भी कहा था- आगे बढ़ो। अब जब थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई पड़ रहा है, तब भी कह रहा हूं - आगे बढ़ो! डरो मत मेरे बच्चो! अनन्त नक्षत्र खचित आकाश की ओर भयभत दृिश्ट से मत देखो, जैसे कि वह तुम्हें कुचल डालेगा। धीरज धरो, देखोगे- कुछ ही समय के बाद सब कुछ तुम्हारे पैरों तले आ गया है। न धन से काम होता है, न नाम यश से काम होता है, विद्या से भी नहीं होता, प्रेम से ही सब कुछ होता है - चरित्र ही बाधा विघ्न की वज्र कठोर दीवारों के बीच से रास्ता बना सकता है।

महान बनने के लिए किसी भी जाति या व्यक्ति में तीन वस्तुओं की आवश्यकता है- `सदाचार की ‘ाक्ति में विश्वास, ईश्र्या और सन्देह का परित्याग एवं जो सदाचारी बनने या अच्छा कार्य करने की कोशिश करता है उनकी सहायता करना।´

कार्य की सामान्य ‘ाुरूआत देखकर घबराओ मत, कार्य सामान्य से ही महान होता है। साहस रखो , सेवा करो, नेता बनने की कोशिश मत करो। नेता बनने की पाशविक प्रवृत्ति ने जीवन रूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजो को डुबो दिया है। इस विशय में सावधान रहो, अर्थात मृत्यु को भी तुच्छ मानकर नि:स्वार्थी बनो और काम करते रहो।

हे वीर-हृदय युवको! यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म बड़े-बड़े काम करने के लिए हुआ है। कुत्तों के भोंकने से न डरो- यहां तक कि आसमान से वज्रपात होने से भी न घबराना, `उठकर खड़े हो जाओ और काम करो।

विश्व के इतिहास में क्या कभी ऐसा देखा गया है कि धनवानों द्वारा कोई महान कार्य सिद्ध हुआ होर्षोर्षो हृदय और दिमाग से ही हमेशा सब बड़े काम किए जाते हैं-धन से नहीं। रुपय-पैसे सब अपने आप आते रहेंगे। आवश्यकता है मनुश्यों की धन की नहीं। मनुश्य सब कुछ करता है, रुपया क्या कर सकता हैर्षोर्षो मनुश्य चाहिए- जितने मिलें, उतना ही अच्छा है।

संसार की समस्त सम्पदाओं से मनुश्य अधिक मूल्यवान है। हे वीर-हृदय बालकगण, आगे बढ़ो! धन रहे या न रहे, लोगों की सहायता मिले या न मिले, तुम्हारे पास तो प्रेम हे नर्षोर्षो भगवान तो तुम्हारा सहारा है नर्षोर्षो आगे बढ़ो, कोई तुम्हारी गति रोक नहीं पायेगा। लोग चाहे कुछ भी क्यों न सोचें( तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत् प्रेम का आदशZ छोटा न करना...... जिसे ईश्वर से प्रेम है उसके लिए ‘ाठता से घबराने का कोई कारण नहीं है, पवित्रता ही पृथ्वी और स्वर्ग में सबसे महत् दिव्य ‘ाक्ति है।

गणमान्य, उच्च पदस्थ और धनवानों पर कोई भरोसा न रखो। उनके अन्दर कोई जीवन ‘ाक्ति नहीं है- एक तरह से उनको मृतकल्प कहा जा सकता है। भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है - जो पद मर्यादाविहीन गरीब किन्तु विश्वास परायण है........ हमें धनी और बड़े लोगों की परवाह नहीं। हम लोग हृदयहीन कोरे बुद्धिवादी व्यक्तियों और उनके निस्तेज समाचार पत्र के प्रबन्धों की परवाह नहीं करते। विश्वास-विश्वास, सहानुभूति, अग्निमय विश्वास, ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। जय प्रभु! जय प्रभु! जीवन तुच्छ है, तुच्छ है मरण, भूख तुच्छ है, तुच्छ है ‘ाीत भी। प्रभु की जय हो। आगे बढ़ो, बढ़ते चलो, हम ऐसे ही आगे बढ़ेंगे - एक गिरेगा तो दूसरा उसका स्थान लेगा।

ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वह तुम्हारे अन्दर भी जल उठे। तुम्हारे मन और मुख एक हों, तुम लोग अत्यन्त निश्कपट बनो, तुम लोग संसार के रण क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त करो- विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।





1 comment:

  1. स्‍वामी विवेकानंद के विचार हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। वे समय और देशों की सीमाओं से परे हैं।

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