Saturday, January 23, 2016

पुरुष को पुरुष कहा है और स्त्री को प्रकृति कहा है


पुरुष की उत्सुकता
किसी भी स्त्री में
तभी तक होती है,
जब तक वह उसे
जीत नहीं लेता।
जीतते ही उसकी
उत्सुकता समाप्त
हो जाती है।
जीतते ही फिर
कोई रस
नहीं रह जाता।
नीत्शे ने कहा है कि
पुरुष का
गहरे से गहरा रस
विजय है।
कामवासना भी उतनी
गहरी नहीं है।
कामवासना भी
विजय का
एक क्षेत्र है।
इसलिए पत्नी में
उत्सुकता
समाप्त हो जाती है,
क्योंकि वह
जीती ही जा चुकी।
उसमें कोई अब
जीतने को बाकी
नहीं रहा है।
इसलिए जो
बुद्धिमान पत्नियां हैं,
वे सदा
इस भांति जीएंगी
पति के साथ कि
जीतने को कुछ
बाकी बना रहे।
नहीं तो
पुरुष का कोई रस
सीधे स्त्री में नहीं है।
अगर कुछ
अभी जीतने को
बाकी है तो
उसका रस होगा।
अगर सब जीता
जा चुका है तो
उसका रस
खो जाएगा।
तब कभी-कभी
ऐसा भी
घटित होता है कि
अपनी सुंदर
पत्नी को छोड़ कर
वह एक
साधारण स्त्री में
भी उत्सुक
हो सकता है।
और तब
लोगों को बड़ी
हैरानी होती है कि
यह उत्सुकता
पागलपन की है।
इतनी सुंदर उसकी
पत्नी है और
वह नौकरानी के
पीछे दीवाना हो!
पर आप समझ
नहीं पा रहे हैं।
नौकरानी अभी
जीती जा सकती है;
पत्नी जीती जा चुकी।
सुंदर और
असुंदर बहुत
मौलिक नहीं हैं।
जितनी कठिनाई होगी
जीत में,
उतना पुरुष का रस
गहन होगा।
और स्त्री की स्थिति
बिलकुल और है।
जितना पुरुष
मिला हुआ हो,
जितना उसे
अपना मालूम पड़े,
जितनी दूरी
कम हो गई हो,
उतनी ही वह
ज्यादा लीन
हो सकेगी।
स्त्री इसलिए पत्नी
होने में उत्सुक होती है;
प्रेयसी होने में उत्सुक
नहीं होती।
पुरुष प्रेमी होने में
उत्सुक होता है;
पति होना
उसकी मजबूरी है।
स्त्री का यह जो
संतुलित भाव है--
विजय की
आकांक्षा नहीं है--
यह ज्यादा
मौलिक स्थिति है।
क्योंकि असंतुलन
हमेशा संतुलन के
बाद की स्थिति है।
संतुलन प्रकृति का
स्वभाव है।
इसलिए हमने
पुरुष को
पुरुष कहा है और
स्त्री को
प्रकृति कहा है।
प्रकृति का
मतलब है कि
जैसी स्थिति
होनी चाहिए स्वभावतः।
ओशो.....♡

टिप्पणी - यह रचना फ़ेसबुक से साभार दी जा रही है!

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