हँसी खुद ही रो रही है।
दु:ख में खुशी, हमें हो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
बुद्धि उर पर हुई हावी,
ख्याल उगते, नहीं पुलावी।
मकरन्द को, भंवरा नहीं,
योजना नहीं है, कोई भावी।
कली बसन्त को ढो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
प्रेम का व्यापार फलता,
स्वार्थ से संसार चलता।
टीवी पर मुस्कान बिकती,
किशोर का यौवन है ढलता।
बेचैनी ही अब सो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
फूल अब चुभने लगे हैं,
कांटे ही लगते भले हैं।
आलिंगनों से डर है लगता,
प्रेम में कटते गले हैं।
शान्ति आतंक बो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
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