Thursday, August 7, 2008

नर-नारी समानता - एक आकर्षक झूंठ! समझे और सुधारें

नर-नारी समानता - एक आकर्षक झूंठ! समझे और सुधारें

समानता- एक आकर्षक झूंठ

संविधान ने हमें समानता का मौलिक अधिकार दिया है। समानता की मांग प्रत्येक क्षेत्र व प्रत्येक स्तर पर की जाती है। समानता का नारा सर्वाधिक प्रचलित, आकर्षक व लोकप्रिय जुमला बन चुका है। प्रत्येक क्षेत्र में समानता की मांग व समानता की वकालत हमें चारों और देखने को मिलती है। समानता का अधिकार देने पर हम गर्व की अनुभूति भी करते हैं। हमारा नेतृत्व समानता को भारतीय संविधान की विशिष्ट उपलब्धि भी बताता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च स्तर के व्यक्ति के साथ समानता चाहता है किन्तु अपने से निम्न स्तर के व्यक्ति के साथ समानता शायद ही व्यवहार में कोई चाहता हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च वर्ण में सिम्मलित होना चाहता है, किन्तु व्यवहार में क्या निम्न समझे जाने वाले वर्ण भी आपस में समानता का व्यवहार करते हैं? या उच्चता का अहम् पाले सवर्ण वर्ग एक ही जाति के अन्दर भेदभाव नहीं करता? यहां व्यवहार में शब्द इसलिए प्रयुक्त किया गया है कि सिद्धान्तत: समानता की डींगे हांकना सरल कार्य है किन्तु व्यवहार में लागू करना जटिल ही नहीं असम्भव है। समानता निरपेक्ष रूप में स्थापित नहीं की जा सकती। समानता का अर्थ ही बड़ा जटिल है। संविधान की व्याख्या करते समय समानता का आशय `समान वर्ग के लिए समान अवसर´ से लिया जाता है। कहने का आशय यह है कि वर्गों में विभाजन तो अनिवार्य ही है। भले ही हम किसी भी नाम से संबोधित करें। वर्ग न कहकर श्रेणी कह लें, जाति कह लें, पद कह लें, समाज में कोई न कोई वर्गीकरण की प्रणाली तो रहेगी ही। समानता के जुमले को नर-नारी समानता के सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रयुक्त किया जाता है। समानता के नाम पर नर और नारी जो प्राकृतिक रूप से ही एक-दूसरे के पूरक, प्राकृतिक मित्र व अन्योन्याश्रित रूप से एक-दूसरे पर आश्रित व एक दूसरे की जरूरत हैं। प्राचीन काल में इसीलिए नर-नारी को मिलाकर ही एक इकाई माना गया है। दोनों ही एक -दूसरे के बिना अधूरे हैं। इस समानता के बखेड़ें के कारण ही आज एक-दूसरे के आमने सामने, एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी व एक-दूसरे के दुश्मन बन गए हैं। वस्तुत: समानता एक आकर्षक व बहुत बड़ा झूंठ है।
यथार्थ यह है कि नर-नारी की तो बात ही क्या है? दो नर या दो नारी भी आपस में समान नहीं होते। समानता के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए दो शब्दों को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण होगा- स्थानापन्न व पूरक। स्थानापन्न उस व्यक्ति या वस्तु को कहा जा सकता है, जो किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु के स्थान पर पूर्ण कुशलता के साथ प्रयुक्त हो सके, जबकि पूरक का आशय उन वस्तु या व्यक्तियों से है जो एक-साथ मिलकर ही उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु का पूर्ण स्थानापन्न नहीं हो सकता। यह ठीक है कि साइकिल की जगह स्कूटर का प्रयोग करके यात्रा सम्पन्न की जा सकती है। अत: इन्हें एक दूसरे का स्थानापन्न कहा जा सकता है किन्तु ये पूर्ण स्थानापन्न नहीं हैं, दोनों की विशेषताएं भिन्न-भिन्न हैं प्रयोग करते समय ही मालुम पडे़गा कि ऐसी भी परिस्थिति आयेंगी, जब स्कूटर के स्थान पर साइकिल या साइकिल के स्थान पर स्कूटर काम नहीं करेगा। दूसरी और पूरक वस्तुओं पर विचार करें तो पता चलता है कि स्कूटर बिना पेट्रोल के व्यर्थ है तो पेट्रोल बिना स्कूटर के यात्रा पूरी नहीं कर सकता। इन तथ्यों पर विचार करके कोई भी विचारवान व्यक्ति समझ सकता है कि नर-नारी दोनों एक-दूसरे के सादृश्यमूलक व्यक्तित्व प्रतीत होते हैं। कुछ कामों को एक-दूसरे के स्थान पर पूर्ण भी कर सकते हैं किन्तु एक-दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न नहीं हैं, ये दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं जो एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। पूर्णता के लिए एक-दूसरे का साथ अनिवार्य है। दोनों में रचनात्मक, स्वाभाविक व मौलिक भिन्नताएं हैं। अत: इन्हें बराबरी की लड़ाई में सम्मिलित करके एक-दूसरे का दुश्मन बनाना व्यक्ति व समाज दोनों का अहित करना है। नर-नारी दोनों समान नहीं है यह कहने का आशय यह नहीं कि नारी कमजोर है या वह पुरूष की दासी है। प्रकृति प्रदत्त विशेष गुणों के कारण दोनों की भिन्न-भिन्न विशेषताएं हैं, भिन्न-भिन्न रूचियां हैं, भिन्न-भिन्न शक्तियां हैं भिन्न-भिन्न शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक आवश्यकताएं हैं। कुछ क्षेत्रों में नारी अग्रणी स्थान रखती है तो कुछ क्षेत्रों में नर इक्कीस ठहरता है। नैसर्गिक क्षमताओं को उनकी रूचियों के अनुसार विकसित करके तथा दोनों एक-दूसरे की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए एक सफल व्यक्तित्व बनते हैं। दोनों में समानता है तो एक ही है कि दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है।
वर्तमान समय विशेषज्ञता का युग है। विशेषज्ञता का आशय है किसी अनुकूल परिस्थितियों वाले रूचिकर क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करना और उसे अपना कार्य क्षेत्र बनाना जिससे उस क्षेत्र में अधिकतम कुशलता के साथ कार्य करके अधिकतम् सन्तुष्टि प्राप्त की जा सके तथा परिवार व समाज के लिए अधिकतम सुखदायक परिणाम प्राप्त किए जा सकें। जिस प्रकार चार भाइयों में प्रत्येक की रूचि भिन्न-भिन्न होती हैं और वे भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं जिनमें उनकी रूचि व कुशलता होती है। किन्हीं दो व्यक्तियों में पूर्ण समानता नहीं होती। नर और नारी जीव-वैज्ञानिक दृष्टि से भी भिन्न-भिन्न शारीरिक क्षमताएं लिए हुए होते हैं। नर की अपेक्षा नारी का शरीर कम शक्तिशाली, कम ऊंचाई तथा लघु व कोमल आकार का होता है। शरीर के अनुसार ही उसकी पौषण आवश्यकताएं भी नर से भिन्न ही होती हैं। नर जहां भावुकता के क्षेत्र में नारी से पिछड़ जाता है, वहीं घुमक्कड़ी में नारी को पीछे छोड़ देता है। यह सभी भिन्नताएं प्रकृति प्रदत्त है किसी के द्वारा थोपी नहीं गई हैं। नारी संरचना में उसे मातृत्व से विभूषित करके प्रकृति ने सृजन की क्षमता प्रदान कर उसे बीज का संवर्द्धन कर नवीन रचना का जन्मदाता व पोषक बनाया है। यह एक आधारभूत देन है जो नारी को पुरूष से श्रेष्ठ बनाती है और पुरूष नारी का सहायक मात्र हो जाता है। नारी नवीन रचना को जन्म ही नहीं देती, उसे दुग्ध पान कराकर जन्म के बाद भी पोषण देती है। इसी विशेषता के कारण परिवार के पालन-पोषण का दायित्व भी नारी ही निभाती है। नारी पालक है, नर तो केवल सहायक मात्र है। यह मातृत्व ही नारी की घुमक्कड़ी पर प्रतिबन्ध लगाता है। नारी की घुमक्कड़ी पर लगाए गए प्रतिबन्ध के कारण ही परिवार का सृजन होता है, घर बनता है। इसीलिए नारी को गृहिणी नाम से संबोधित किया है। नारी को दोयम दर्जे का दर्जा उसको देवी बनाने वालों व उसकी सती व देवी कहलवाने की लालसा ने दिया है। वास्तव में हमें कुछ भी बनने के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। हम जो भी हैं अपनी अन्तनिर्हित शक्तियों का विकास कर नर या नारी की पूर्णता को प्राप्त करें। हमें मुखोटे लगाना ही सबसे अधिक त्रस्त करता है। हमें देव या देवी बनने की आवश्यकता नहीं है। हम मानव हैं और सच्चे अर्थों में मानव बनने के प्रयत्न करें।
वास्तव में नारी ही नर की अर्द्धांगिनी नहीं नर भी नारी का अरद्धांग है। दोनों का ही एक-दूसरे के बिना न तो जन्म संभव है और न ही जीवन। दोनों एक-दूसरे की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। जो स्वतन्त्रतावादी महिलाएं किसी एक पुरूष के बंधन में बंधकर नहीं रहना चाहतीं, वे भी बिना पुरूष के तो नहीं रहतीं। हां, यह हो सकता है कि वे निपट स्वार्थी बनकर पुरूष का अपनी इच्छानुसार उपभोग कर किनारे हो जाती हों, जिस प्रकार पुरूष अपने अहम में नारी का उपभोग करता आया है। किन्तु दोनों ही परिस्थितियों में वास्तविक शान्ति किसी को नहीं मिलेगी, न स्त्री को और न ही पुरूष को। प्राचीन काल से ही जो पुरुष नारी को त्याज्य मानकर घर छोड़कर कंदराओं की ओर गए, वे भी किसी मेनका या उर्वशी के चंगुल में फंसे या स्वर्ग में अप्सराओं के सानिध्य की कामना करते रहे। स्त्री व पुरूष दोनों को ही प्रकृति ने भिन्न-भिन्न बनाया है, न केवल शारीरिक रूप से वरन मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक व भौतिक रूप से भी। नारी के लिए सबसे नुकसान देह सिद्ध हुआ, नारी पर मातृत्व थोपा जा सकता है, जबकि पुरूष पर पितृत्व थोपा नहीं जा सकता। नारी न चाहते हुए भी मां बन सकती है, पुरूष न चाहते हुए पिता नहीं बन सकता। कहने का आशय यह है कि पुरूष स्त्री की इच्छा के बिना भी उसे मां बना सकता है, जबकि स्त्री चाहकर भी पुरूष को उसकी इच्छा के बिना पिता नहीं बना सकती। प्रकृति ने इसी की क्षतिपूर्ति के लिए नारी को ऐसे आकर्षक व सहज गुणों से विभूषित किया है कि वह पुरूष को आकर्षित कर सके क्योंकि वह अपनी कामनाओं की पूर्ति पुरूष को तैयार करके ही कर सकती है। इसी लिए वह रिझाती है और पुरूष को अपना बन्दी बना लेती है। इसी लिए रामधारी सिंह दिनकर ने उर्वशी में लिखा है-
इन्द्र का आयुध
पुरूष जो झेल सकता
सिंह से बांहे मिलाकर
खेल सकता
फूल के आगे वही असहाय हो जाता
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता
बिद्ध हो जाता
सहज बंकिम नयन के वाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
समय-समय पर नारी ने अपनी शक्तियों का प्रयोग भी किया है और बड़े से बड़े वीर पुरूषों को, बड़े-बड़े संन्यासियों को अपनी इस शक्ति से पराजित किया है। कहा यहां तक जाता है कि देव-दानवों के मध्य अमृत बटवारे के समय भी नारी ने ही असुरों को परास्त किया। स्त्री के यह आकर्षक व नैसर्गिक गुण उसके लिए बहुत बड़े वरदान हैं, इन्हें कोसना नहीं चाहिए। प्रसिद्ध समाजशास्त्री बायरन के विचार में प्रेम पुरूष के जीवन का एक हिस्सा होता है और नारी के लिए सम्पूर्ण अस्तित्व। यह प्रेम मातृत्व ने ही बख्शा है। नारी के लिए मातृत्व जंजीर नहीं बनना चाहिए। उसके विकास के अवसरों को इस जंजीर में बांधकर अवरूद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि नारी के विकास के अवसरों को रूद्ध होने का आशय पुरूष के विकास के अवसरों का अवरूद्ध होना भी है, परिवार व समाज के विकास का अवरूद्ध होना भी है।
स्त्रीमुक्तिवादी व्यक्तियों द्वारा आलोचना की जाती है कि पुरूष स्त्री को केवल देह मानकर भोग करता आया है। मेरे विचार में स्त्री हो या पुरूष दोनों का ही अस्तित्व देह पर ही निर्भर है। इस शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा न स्त्री है और न ही पुरूष। हां, यह बात निश्चित रूप से आलोच्य है कि पुरूष कई बार अपने अह्म में स्त्री की इच्छा को नजरअन्दाज कर उसके शरीर को भोगता है। निश्चित रूप से स्त्री और पुरूष को एक-दूसरे की इच्छाओं, कामनाओं, आवश्यकताओं का पूरा ख्याल रखना ही चाहिए अन्यथा उसकी स्वयं की इच्छायें, कामनाएं या आवश्यकताएं भी अतृप्त रह जायेंगी। जहां तक देह की बात है। आत्मा अदृश्य है, पहली ही दृष्टि में हमें शरीर ही नजर आता है। शरीर मूल है, यह आत्मा को संसार में आने का आधार प्रदान करता है। आत्मा के अस्तित्व पर विभिन्न मत हो सकते हैं किन्तु शरीर पर नहीं इसकी भी अपनी नैसर्गिक आवश्यकताएं हैं जिनकी पूर्ति पर ही इसका अस्तित्व और विकास निर्भर है। शिक्षा के बिना जीवन रह सकता है किन्तु भोजन व जल के बिना शरीर के अस्तित्व पर ही संकट आ जायेगा। शरीर शरीर है वह चाहे स्त्री का हो या पुरूष का। पुरूष को स्त्री के शरीर के साथ की आकांक्षा होती है तो क्या स्त्री यह कह सकती है कि उसे पुरूष के शरीर की आवश्यकता नहीं? शारीरिक भूख को सिद्धान्तों व तर्कों के मायाजाल में उलझाकर शान्त नहीं किया जा सकता। हां, यह संभव है कि कुछ स्त्री या पुरूष मन पर नियन्त्रण स्थापित करके अपनी इच्छाओं, कामनाओं या आकांक्षाओं का शमन कर लें किन्तु इसका यह अर्थ नही कि स्त्री के लिए पुरूष देह का या पुरूष के लिए स्त्री देह का कोई महत्व नहीं। आत्मा का विकास भी शरीर के द्वारा ही संभव है। अपवाद सिद्धान्त नहीं बन सकते। स्त्री व पुरूष का अलगाव या वैराग्य धर्म नहीं है क्योंकि धर्म वही है जो प्राकृतिक है, धर्म वही है जिससे संसार सामान्य गति से गतिमान रह सके। यदि स्त्री और पुरूष अलग-अलग रहने की स्थिति में पहुंच जायं (वैसे ऐसा कभी संभव नहीं है) तो संसार ही नष्ट हो जायेगा। अत: यह आलोचना व्यर्थ है कि पुरूष के लिए स्त्री केवल शरीर मात्र है। कितनी स्त्रियां यह कह सकती हैं कि पुरूष उनके लिए शरीर मात्र नहीं रह जाता? यदि शरीर का महत्व नहीं होगा तो क्यों कोई स्त्री दुबले-पतले व नि:शक्त व्यक्ति के साथ प्रसन्नता का अनुभव नहीं करती, जबकि उसके पास पर्याप्त विकसित मस्तिष्क व जीवनयापन के साधन होते हैं। क्या ऐसे पुरूष का साथ छोड़कर स्त्रियां चली नहीं जातीं? क्या अत्यन्त सुन्दर पागल स्त्री के साथ कोई भी पुरूष रहना पसन्द करेगा? सभी मानसिक, संवेदनात्मक, भावनात्मक व बौद्धिक गुणों का महत्व पुरूष के लिए भी है और नारी के लिए भी , इसके बाबजूद शरीर के महत्व को भी नगण्य नहीं समझना चाहिए। हमें इस यथार्थ को नहीं झुंठलाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरूष के लिए स्त्री की सुन्दरता का महत्व है, उसी प्रकार स्त्री के लिए भी पुरूष के व्यक्तित्व का महत्व है। दोनों ही शरीर है और एक-दूसरे के लिए हैं। आत्मा अदृश्य है और शरीर के माध्यम से ही कार्य करती है। अत: शरीर ही योग्यता का भी साधन बनता है और प्रेम व सृजन का भी। कोई भी पुरूष स्त्री को केवल शरीर के लिए नहीं चाहता, उसके गुणों व क्षमताओं का न केवल वह सम्मान करता है वरन एक गुणवान, विदुषी व बुद्धिमती महिला को पाकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।
स्त्री और पुरूष के अपनी-अपनी रूचियां हैं, अपने-अपने नैसर्गिक गुण हैं। नैसर्गिक रूचियों के अनुरूप नैसर्गिक गुणों का विकास करके ही आगे से आगे बढ़ा जा सकता है। स्त्री कितने भी प्रयास कर ले कि वह पुरूषोचित गुणों का विकास करेगी, वह पुरूष नहीं बन सकती और न ही उसे पुरूष बनने के प्रयत्न करने चाहिए। पुरूष कितने भी प्रयास कर ले कि वह स्त्रियोंचित गुणों को ग्रहण कर ले किन्तु वह कभी सफल नहीं हो सकता। यहां पर मुंशी प्रेमचन्द द्वारा उनके प्रसिद्ध उपन्यास गोदान में व्यक्त विचार महत्वपूर्ण हैं, `यदि पुरूष स्त्रियों के गुणों को ग्रहण करले तो वह देवता बन जायेगा, जबकि यदि स्त्री पुरूष के गुणों को ग्रहण कर ले तो वह कुलटा हो जायेगी।´ वास्तविक स्थिति यह है कि स्त्री जिन गुणों से परिपूर्ण है वे संसार के लिए अनिवार्य आवश्यकता हैं। संसार का अस्तित्व उनके ऊपर ही निर्भर है। पुरूष भले ही शारीरिक शक्ति में स्त्रियों से कुछ इक्कीस ठहरता हो, इसी आधार पर वह स्त्रियों से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता और न ही उसे ऐसा करना चाहिए। शारीरिक शक्ति में तो पशु अधिक ताकतवर होता है तो क्या पशु को मानव से श्रेष्ठ मान लिया जायेगा? नारी को प्रकृति ने मातृत्व का एक ऐसा वरदान व दायित्व दिया है कि पुरूष कितने भी प्रयास करके उसकी बराबरी नहीं कर सकता। इसी वरदान या दायित्व को नारी की कमजोरी नहीं माना जाना चाहिए। नारी का यह मातृत्व ही उसे ममत्व देता है जो पुरूष को बांधकर रखने में समर्थ होता है। अन्यथा पुरूष पशुओं के समान घूमता ही नजर आता। यही ममत्व परिवार व समाज की धुरी है। परिवार व समाज की नियंता स्त्री ही है और उसी के हाथ में इनका नियन्त्रण देकर अस्तित्व व विकास सुरक्षित रखा जा सकता है। नारी को भी सरलता व विनम्रता के साथ-साथ दृढ़ता को भी आत्मसात करना होगा। इस सन्दर्भ में श्री हरिवंशराय बच्चन की `आत्मकथा क्या भूलं क्या याद करूं´ में उनकी पत्नी श्यामा का कथन, `मुझे जहर लाकर दे देना, पर दान के धन से मेरा इलाज न कराना´ प्रत्येक नारी के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। नारी को किसी की ओर निहारना नहीं चाहिए। उसके पास इतना कुछ है कि वह सम्पूर्ण सृष्टि के लिए दाता है। उसे कमजोरी का प्रदर्शन कर नारी होने के नाते मांगें नहीं रखनी चाहिए।
पुरूष भले ही शारीरिक शक्ति का प्रयोग करके या बाहर जाकर सम्पत्ति का अर्जन करे, उस पर उसका स्वामित्व नहीं हो सकता। उसका प्रबन्ध जितनी कुशलता से स्त्री कर सकती है, पुरूष नहीं। अत: संसाधनों पर केवल पुरूष का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता। शिक्षा व विकास के अवसरों की समानता की मांग करना गलत नहीं कहा जा सकता। प्रकृति ने भले ही नर-नारी में भिन्नताओं का सृजन किया हो किन्तु नारी को विकास के अवसरों से वंचित करने का अधिकार किसी को नहीं है न पुरूष को और न ही नारी को। प्रकृति ने नर व नारी को एक दूसरे के लिए पैदा किया है, अपने-अपने लिए नहीं इसी कारण नर की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं व अभिलाषाओं की पूर्ति की क्षमताएं नारी को बख्शी हैं तो नारी की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं व अभिलाषाओं की पूर्ति की क्षमताएं पुरूष को दी हैं। पुरूष नारी के लिए है व नारी पुरूष के लिए। नारी ने अपने कर्तव्य का पालन भली प्रकार से किया है, पुरूष घर से बाहर निकलकर शक्ति के मद में अपने कर्तव्य से समय-समय पर च्युत होता रहा है और यही समस्या की जड़ है। नारी ने भी उसके अह्म को बढ़ाने में योग ही दिया है। समस्या का समाधान नारी का भी कर्तव्य से च्युत हो जाना नहीं है बल्कि पुरूष को नारी के लिए जीना सीखना होगा यह सीख भी नारी ही दे सकती है। पुरूष नारी की प्रेरणा से ही आगे बढ़ता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि प्रत्येक सफल पुरूष के पीछे किसी न किसी नारी का हाथ होता है। यह तभी संभव है जब दोनों के मिलन के समय शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक परीक्षणों के द्वारा एक-दूसरे के अनुरूप व्यक्तित्वों का चयन किया जायेगा। एक अशिक्षित नारी विद्वान नर के साथ या एक विदुषी नारी मूर्ख नर के साथ या एक सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति नारी कुरूप नर के साथ या एक कुरूप नारी सुन्दर नर के साथ उचित जोड़ा नहीं बना पायेगी और समस्याओं में वृद्धि होने की संभावना हो सकती है। हां शरीर पर नियंत्रण मस्तिष्क व हृदय का होता है, अत: शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा भावनात्मक व बौद्धिक विकास व समन्वय दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए अधिक आवश्यक है। जब तक समन्वय व सांमजस्यपूर्ण रूख रखते हुए एक-दूसरे के पूरक बनकर साथ-साथ जीने के लिए तैयार नहीं होगें। वे एक-दूसरे के व्यक्तित्व के विकास में या परिवार व समाज के विकास में पूर्ण योग नहीं दे सकते।
हमारी गलत अवधारणाओं, कालान्तर में पनपी गलत परंपराओं तथा नारी के द्वारा नर के प्रति पूर्ण समर्पण, तथा नर द्वारा नारी के प्रति अपने कर्तव्य से च्युत होने के कारण ही नारी को जन्म के अधिकार से ही वंचित किया जा रहा है। उसे गर्भ में ही समाप्त कर दिया जाता है। इस अन्याय को करने में केवल पुरूष ही नहीं महिला भी पीछे नहीं हैं। नारी पुरूष के लिए है तो पुरूष को नारी के लिए होना पड़ेगा और नारी नर सन्तान पर अधिक ध्यान देती है तो नर को नारी सन्तान को पूर्ण संरक्षण देना चाहिए। यह विपरीत लिंगी आकर्षण के कारण होता है। किन्तु नारी को भी समझना चाहिए कि उसे नर सन्तान कितनी भी अच्छी लगती हो, नारी सन्तान की भी उसे किसी भी स्थिति में उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। नारी को दहेज की आवश्यकता नहीं, किन्तु पिता की सम्पत्ति में उसके अधिकार से उसे वंचित करने का किसी को भी अधिकार नहीं होना चाहिए। नारी को भी अपने अधिकार को प्राप्त करने के लिए अपने रौद्र रूप को धारण करने में नहीं हिचकना चाहिए। नारी को भी अपने विकास को सुनिश्चित करने वाले अधिकारों की प्राप्ति के लिए आगे आना होगा। सामान्यत: माताएं कन्याओं की अपेक्षा बालकों को अधिक समय तक दुग्ध पान कराती हैं उसके बाद भी उनकी सेहत का ही अधिक ध्यान रखती हैं, इस प्रवृत्ति को बदलना होगा। घर पर नियंत्रण गृहिणी का ही होता है अत: अपने प्रति भी उसे सकारात्मक सोचना होगा। आज नारी पर ही दायित्व है कि यदि पुरूष उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा है, अपने कर्तव्यों की पूर्ति नहीं कर रहा है तो उसे इसके लिए मजबूर करे। उसे ध्यान रखना चाहिए, अधिकार मांगने से नहीं मिलते उन्हें शक्ति से लेना पड़ता है। पुरूष निश्चित रूप से उसका प्राकृतिक मित्र है किन्तु यदि वही उसके व्यक्तित्व का क्षरण करे तो उसे उसकी रक्षा के लिए खड़ा होना ही पड़ेगा यही उसके हित में है तो यही पुरूष के हित में भी, क्योंकि नारी का कमजोर होना स्वयं पुरूष का कमजोर होना भी है। नारी को समानता के आकर्षक झूंठ में न फंसकर अपना व अपने प्राकृतिक घटक पुरूष का नैसर्गिक विकास सुनि्श्चित करना चाहिए और यही काम पुरूष को भी सुनिश्चित करना चाहिए। न तो पुरूष को स्त्री बनने की आवश्यकता है और न ही स्त्री को पुरूष। स्त्री, स्त्री रहे और पुरूष, पुरूष। यही दोनों के आनन्द का आधार है। दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्द्धी बनने के प्रयत्न न करके एक-दूसरे के पूरक बनकर जीवन को आनन्दपूर्ण व संसार को स्वर्गिक आभा से परिपूर्ण बना सकते हैं और उन्हें ऐसा करना चाहिए।

3 comments:

  1. अतिउत्तम
    "नारी को समानता के आकर्षक झूंठ में न फंसकर अपना व अपने प्राकृतिक घटक पुरूष का नैसर्गिक विकास सुनि्श्चित करना चाहिए और यही काम पुरूष को भी सुनिश्चित करना चाहिए। न तो पुरूष को स्त्री बनने की आवश्यकता है और न ही स्त्री को पुरूष। स्त्री, स्त्री रहे और पुरूष, पुरूष। यही दोनों के आनन्द का आधार है। दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्द्धी बनने के प्रयत्न न करके एक-दूसरे के पूरक बनकर जीवन को आनन्दपूर्ण व संसार को स्वर्गिक आभा से परिपूर्ण बना सकते हैं और उन्हें ऐसा करना चाहिए।"

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