Sunday, November 9, 2014

छिपाए हुए हो सुगन्ध हिये में

4.5.2007
प्रेम हैं बहती नदी, जागीर नहीं है आपकी।
प्रेम शीतल चाँदनी, न आग पश्चाताप की।
प्रेम प्रकृति प्रदत्त है, ना उपज है विज्ञान की।
प्रेम की पवित्रता को, दुनियाँ न समझे स्वार्थ की।

4.6.2007

क्या भूलूँ? क्या याद करूँ?
सोच न पाता आज प्रिये मैं!
प्रेम भरे वो खत सच थे या,
दर्द आज जो दिया हिये में।

बोली मधुर मुस्कान मधुर थी।
चलने की वो अदा मधुर थी।
ठोकर से ही तोड़ दी डोरी,
ठोकर की है,  छाप हिये में।

बात किए बिन, चैन न मिलता।
जानूँ नहीं, कब  हुई गहनता।
जाओ कहीं पर भूल न पाऊँ,
छोड़ गईं वो प्यार हिये में!

प्रेम नहीं तो मुँह क्यों मोड़ा?
आँसू छिपा के दिल क्यों तोड़ा?
कमजोर हुईं क्यों समझ न पाया,
हँसतीं ऊपर आँसू हिये में!

प्यार की दुश्मन दुनियाँदारी।
खुद्दारी  से अपनी  यारी।
जली-कटी तुम खूब सुनातीं, 
करती हो बरसात हिये में।

दुःख तुम्हारा समझ न पाया।
हाले जिगर को जान न पाया।
बाहर से बस काँटे दिखते,
छिपाए हुए हो सुगन्ध हिये में।

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