Sunday, November 30, 2014

सच मानो उफ़ न करूंगी

ढल जाउंगी हर ढांचे में

                                           रोशनी विश्वकर्मा


समझते समझते समझ रही हूँ I 
मैं क्या तड़पाऊँगी तुमको, 
अंतर्मन मन से खुद तड़प रही हूँ I 
गिरा के दो चार आँशु ,
समझा लिया अपने मन को ,
नहीं है प्यार मेरे  आँचल में I 
क्या समझाऊँ मैं ज़माने को ,
नहीं समझ पाया कोई मुझको I 
आज भी मैं गीली मिट्टी हूँ ,
चाहत की चाक से , 
प्यार भरे हाथों से अपने ,
ढाल लो चाहे जिस साँचे  में I 
सच मानो उफ़ न करूंगी ,
ढल जाउंगी हर ढांचे में I

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