Saturday, November 15, 2014

लिखते रहें हम खत आजीवन

4.11.2007
आपके बिन हम जीते कैसे? जान आपको क्या करना है?
आप रहें खुश, हम तो सोचें, खुशियों का हमें क्या करना है?
जान आपके जाने से हम जान गए है मरना क्या है?
रमाविहीन हम हुए अकिंचन, अब मौत से क्या डरना है?

4.12.2007
आपने हमको क्या था समझा, अपने को आभास नहीं है।
निर्मुक्त हुए हम देखो जग में, ऊपर भी आकाश नहीं है।।
राह में चलते, ना हमराही,
घुल गई है जीवन में स्याही।
राह आपकी स्वच्छ रहे बस,
काँटें मिले न, मिले ना खाई।
दिल में आपका बास सदा ही, तन्हाई अहसास नहीं है।
निर्मुक्त हुए हम देखो जग में, ऊपर भी आकाश नहीं है।।
आपकी महफिल सजी सजाई,
देखी कुछ पल सजा है पाई।
हमने आपको अपना समझा,
अमानत निकलीं आप पराई।
दिग्भ्रमित हम पथिक हैं कैसे? गन्तव्य का आभास नहीं है।
निर्मुक्त हुए हम देखो जग में, ऊपर भी आकाश नहीं है।।
तन आपका सुगन्ध से महके,
मन बालम के प्यार से चहके।
ससुराल सार सुख बने तुम्हारी,
मेरी जान अब कभी न बहके।
तजकर हमको आप हैं कैसी? बिल्कुल भी आभास नहीं है।
निर्मुक्त हुए हम देखो जग में, ऊपर भी आकाश नहीं है।।
हाल आपके जान न पाये,
दिल अपना हरदम घबड़ाये।
आप भले ही पास न आयें,
होने का अहसास तो आये।
लिखते रहें हम खत आजीवन, आपको ये आभास नहीं हैं।
निर्मुक्त हुए हम देखो जग में, ऊपर भी आकाश नहीं है।।

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