Wednesday, December 9, 2015

तुम तो बस हरजाई हो

घाट-घाट का पानी पीकर, तुम, द्वार हमारे आई हो।

ना समझ थे, समझ न पाये, तुम तो बस हरजाई हो।।

      खुली किताब है, जीवन अपना।

      हमें न किसी का माल हड़पना।

      झूठ, छल, कपट की प्रतिमा,

      हमें न तुम्हारे साथ में चलना।

निर्दयता से जाल में फाँसा, सम्बन्ध भी बने कमाई हो।

ना समझ थे, समझ न पाये, तुम तो बस हरजाई हो।।

      जाति, धर्म और कुल ना कोई।

      जो भी मिला, अपनाया  सोई।

      ‘प्रेम’ शब्द व्यापार  बनाया,

      ऊसर भूमि कहीं जाती बोई?

धन ही धर्म है, धन की धनि हो, धन ही तुम्हारा भाई हो।

ना समझ थे, समझ न पाये, तुम तो बस हरजाई हो।।

      सच के पथिक हैं, साथ न कोई।

      अकेले  चलेंगे, ना खोजें  कोई।

      तुम जिसकी हो, उसे सौंपते,

      काटेंगे  हम,  फसल जो बोई।

शिकारी हो तुम, शिकार बने हम, काटो तुम्हीं कसाई हो।

ना समझ थे, समझ न पाये, तुम तो बस हरजाई हो।।

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