चढ़ती बारंबार नहीं
प्रेम बिना कोई राष्ट्र नहीं है, प्रेम बिना परिवार नहीं।
जिसको किसी से प्रेम न होता, उसका कोई घरबार नहीं।।
प्रकृति के घटक सभी हैं यहाँ पर।
नर-नारी बिन सृजन कहाँ पर?
नव सृजन नव सृष्टि होती,
प्रकृति पुरूष का साथ जहाँ पर।
जब भी मिलो, प्रेम से जिओ, मिलना होता हरबार नहीं।
जिसको किसी से प्रेम न होता, उसका कोई घरबार नहीं।।
मिलने से ही संस्था बनतीं।
मिलने से ही कली विहँसतीं।
मिलने ही की खातिर सृष्टि,
नर-नारी का रूप विरचती।
प्रेम बिना कोई युद्ध न होता, प्रेम बिना दरबार नहीं।
जिसको किसी से प्रेम न होता, उसका कोई घरबार नहीं।।
प्रेम को कपट नहीं सुहाता।
धोखे का यह नहीं अहाता।
छल, कपट कर जीतना चाहे,
बचा न सकता, प्रेम विधाता।
धोखेबाज, झूठ की हांड़ी, चढ़ती बारंबार नहीं।
जिसको किसी से प्रेम न होता, उसका कोई घरबार नहीं।।
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