पत्थर पिघला, तेल हो गया
अकेलेपन से मेल हो गया।
खुद से खुद को प्रेम हो गया।
विश्वास घात की चोट से तुमरी,
जीवन अपना खेल हो गया।
तेरे बिन निःसंग हो गया।
लक्ष्य हमारा भंग हो गया।
पढ़ना लिखना भी है छूटा,
बिन पटरी की रेल हो गया।
प्रेमी से, मैं कौन हो गया।
वाचाल से, अब मौन हो गया।
तेरे बिन सब कुछ अब सूना,
आवास ही अपना जेल हो गया।
राह की अब मैं धूल हो गया।
गर्मी निकली, कूल हो गया।
धोखे की तेरी चोट थी गहरी,
पत्थर पिघला, तेल हो गया।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०८-०४ -२०२२ ) को
''उसकी हँसी(चर्चा अंक-४३९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर
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