Wednesday, May 28, 2008
सुरसा के मुहँ की तरह बढ़ते वेतन व भत्ते
छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट आ गई है। पहले दिन तो लोगों की प्रतिक्रिया ठीक-ठाक ही थीं, किन्तु जैसे-जैसे उनका अर्थ समझा गया आपस में विचार-विमर्श हुआ, रिपोर्ट का विरोध किया जाने लगा। कर्मचारी-गण वेतन आयोग की रिपोर्ट से सन्तुष्ट नहीं हैं। उन्हें और अधिक चाहिए। आंकडे प्रस्तुत किये जा रहे हैं कि वेतन आयोग की रिपोर्ट में लगभग 40 प्रतिशत वृद्धि की सिफारिशें की गईं हैं किन्तु यह चालीस प्रतिशत की सिफारिशें कर्मचारियों को मान्य नहीं, कर्मचारियों की मांग को देखते हुए वेतन आयोग की रिपोर्ट का अध्ययन कर सुझाव देने के लिए एक और समिति का गठन कर दिया गया है, जो निश्चित रूप से और अधिक फायदा देने के लिए ही सिफारिशें प्रस्तुत करेगी। चुनावी वर्ष है। सरकार को सिफारिशें मान भी लेनी हैं क्योंकि वह कर्मचारियों के इतने बड़े तबके को नाराज करना नहीं चाहेगी। असंगठित किसान व मजदूरों पर संगठित कर्मचारी प्राथमिकता पा ही जाते हैं। दूसरी बात विधायिका व न्यायपालिका अपने वेतन-भत्तों को स्वयमेव जब इच्छा होती है, बढ़ा ही लेती हैं। ऐसी स्थिति में नौकरशाही को खुश रखना भी उनकी मजबूरी है। अन्तत: काम तो इनसे ही लेना है। जनसेवक के रूप में दिखाकर अपने स्वार्थों की पूर्ति तो इन्हीं से होनी है। अत: सरकार यह भी अपना पावन कर्तव्य समझती है कि वह अपने कर्मचारियों को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रखे। अत: होता यही है कि सरकार कर्मचारियों के हितों की सिफारिशों को तो मान लेती है किन्तु उन पर नियन्त्रण लगाने की सिफारिशों को नहीं मानतीं। छुट्टी कम करने व काम में सुधार करने की सिफारिशों को नजरअन्दाज कर दिये जाने की संभावना अधिक है।अब एक नजर पांचवे वेतन आयोग से पूर्व के वेतन पर डाली जाय। यहा पर सभी वेतनमानों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है और न ही व्यावहारिक। हम याद करें 1400 व 1600 से प्रारंभ होने वाले वेतनमानों को क्रमश: 5500 व 6500 के वेतनमान दिये गये थे। जो लगभग चार गुना वृद्धि थी। वर्तमान छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने पर इन्हें क्रमश: 13770 व 15510 रुपये 1 जनवरी 2006 से मिलेगा जो वर्तमान स्थिति में 20000 से कुछ ही कम भले रहे। वेतन में ये वृद्धि अभी हो रही हो, ऐसी बात नहीं है। सेवा अवधि के अनुसार वार्षिक वृद्धि का प्रावधान भी होता है। मह¡गाई की दर को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक छ: माह में मह¡गाई भत्ता घोषित किया जाता है। इस प्रकार छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट को लागू होने से पूर्व भी वषZ में तीन बार कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि होती रही है। एक बार वार्षिक वेतन वृद्धि के समय तथा दो बार मह¡गाई भत्ता घोषित होने के साथ 1 जनवरी व 1 जुलाई से। कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि किस कदर होती है, इसे एक उदाहरण से समझना काफी होगा। मैं एक विद्यालय में छोटा सा अध्यापक हू¡। मैंने नवम्बर 2001 में सेवा में प्रवेश किया था। प्रवेश के समय से मेरा वेतनमान 6500-200-10500 है। इस वेतनमान के अन्तर्गत मुझे प्रारंभ में दिसम्बर 2001 में 9425 रुपये मिले थे, जो दिसम्बर 2007 में 16286 रुपये हो गये थे। इस प्रकार छ: वषZ के अन्दर ही मेरे वेतन में 6861 की वृद्धि हुई। एक छोटे से अध्यापक के वेतन में वृद्धि का यह हाल है तो बड़े-बड़े अधिकारियों के वेतन में वृद्धि का अनुमान लगाया ही जा सकता है। यह स्थिति छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से पूर्व की हैं। सिफारिशें लागू होने के बाद की स्थिति तो और भी आश्चर्यजनक होगी।कर्मचारियों में भी छोटे कर्मचारियों को झेलना ही पड़ता है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों में भी वेतन में 1 : 12 का अन्तर दिखाया गया है। अब कहा¡ एक रुपया और कहा¡ 12 रुपये। एक रुपये पाने वाला भी सरकारी कर्मचारी और 12 रुपये पाने वाला भी सरकारी कर्मचारी। 1 जनवरी 2006 को वेतन निर्धारण के समय एक कर्मचारी को 5740 रुपये पगार मिलेगी तो दूसरे को 90000 रुपये पगार के रुप में मिलेंगे। दोनों ही सरकार के कर्मचारी होंगे। यह अन्तर लगभग सोलह गुना बैठता है। यह ठीक है कि सभी कर्मचारी समान नहीं होते और कार्य की प्रकृति के आधार पर वेतन में विभिन्नता आवश्यक है किन्तु इतना अधिक अन्तर कहा¡ तक न्यायोचित है? विचार करने की बात है। वेतन में वृद्धि के पीछे मह¡गाई की दर को आधार बनाया जाता है। मह¡गाई की दर में वृद्धि की दलील देकर विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका के वेतनों में मनमानी वृद्धि हो जाती है। निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलने वाले बड़े-बड़े पैकेजों को भी वेतन-वृद्धि का एक कारण प्रस्तुत किया जा रहा हैं। इसका आशय यही है कि निजी क्षेत्र में व्यवसायी वर्ग अनियिन्त्रत लाभ कमा रहा है, जो एक प्रकार से जनता का शोषण ही है। पू¡जीवादी अर्थव्यवस्था मेें व्यवसायी वर्ग अपने मुनाफे को आसमान की और ले ही जाता है।देश के आधार किसान व मजदूरों की स्थिति की चिन्ता किसी को भी नहीं है। यह ध्यान किसी को भी नहीं है कि मह¡गाई की मार उनको भी प्रभावित करती है। खाद्यान्नों की वृद्धि पर तो चिन्ता जाहिर की जा रही है किन्तु यह नहीं देखा जा रहा कि किसान के द्वारा उपभोग की जा रही प्रत्येक वस्तु की कीमत आसमान छू रही हैं, फिर उसके द्वारा उत्पादित खाद्यान्न की कीमत को लेकर ही इतना हो हल्ला क्यों मचाया जा रहा है? यहा¡ यह सुनििश्चत करने की आवश्यकता है कि खाद्यान्नों में होने वाली वृद्धि का लाभ किसानों को मिले। किसान व असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के जीवन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन लोगों पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है जो िशक्षा व स्वास्थ्य जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के बारे में भी सोच नहीं पाते क्योंकि उनको अभी पेट की भूख शान्त करने से ही होश नहीं है। जनता की सेवा के नाम पर मौज लेने वाले जनसेवकों को काश! जनता की भी थोड़ी बहुत चिन्ता होती तो सुरसा के मुह¡ की भा¡ति वेतन-भत्तों में होती वेतन-वृिद्ध का उपभोग करते हुए भी जनता को विभिन्न समाज कल्याण योजनाओं के अन्तर्गत दिये जा रहे अनुदानों को चट नहीं कर जाते। किसी आलेख में पढ़ा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने किसी स्थान पर कहा था कि मैं अपने कर्मचारियों को इतना वेतन देना सुनििश्चत करू¡गा कि उन्हें भ्रष्टाचार की आवश्यकता न पड़े। यहा¡ पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि भ्रष्टाचार आवश्यकता की नहीं, मनोवृत्ति की उपज है। जिस प्रकार वेतन व भत्तों में वृद्धि हो रही है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार में भी वृद्धि हो रही है। क्योंकि व्यवस्था लागू करने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के संरक्षक हैं। इस स्थिति पर नियंत्रण न किया गया तो शीघ्र ही देश में अराजकता पैदा होने की संभावना बलवती होगी। ज्यों-ज्यों असमानता बढ़गी, त्यों-त्यों जनता में असंतोष बढेगा और सामाजिक सोहार्द्र की स्थिति खराब होगी। अत: अच्छा यही होगा कि सामाजिक मुद्दों को सामाजिक स्तर पर ही हल किया जाय। बढ़ते हुए वेतन-भत्तों को नियंत्रित किया जाय। न्यूनतम् मजदूरी अधिनियम से काम नहीं चलता, उसके साथ-साथ अधिकतम मजदूरी अधिनियम भी बनाया जाय।
Tuesday, May 27, 2008
Tuesday, May 20, 2008
आतंक का मौसम
आतंक का मौसम
आतंक का मौसम आया रे! आतंक का मौसम, भारत में बहार है। सभी को वोटों की दरकार है। भारत हो या पाक दोनों और खींचातान है। आतंकवादियों पर किसी की नहीं लगाम है। सभी आतंक को करते सलाम है। परवेज मुशरफजी के हाथ से निकल चुकी कमान है। मजबूरी में ही सही, अमेरिकी दबाब में आतंकवादियों के विरुद्ध मुशरफजी ने कुछ उठाये थे कदम। आज मुशरफजी खुद ही हो चुके हैं बेदम। गिलानी हो या जरदारी, नवाज शरीफ से हार न मानी। जज करने में बहाल, सभी को आ गयी नानी याद। आतंकवादियों से किया समझौता। स्वात घाटी का कर दिया सौदा। सरकार ने दी गांरटी नहीं करेगी, उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही, उनको भी वायदे की याद दिलाई। पाक में आतंक नही मचायेंगे। सारे भारत में खेल रचायेगें। वही उनकी कर्मभूमि है। पाक में तो खानी बस पूरी हैं। भारतीय भी धर्मभीरू हैं। अतिथियों को देवता मानते हैं। वे आतंकवादियों को भी गले से लगायेंगे। भले ही संसद में सांसद मारे जायेंगे। उनके खिलाफ कोई कानून नहीं बनायेंगे। वे अहिंसक हैं, न्यायालय से फांसी बुल जाने पर भी फांसी नहीं लगायेंगे। जरूरत पड़ी तो हवाई जहाज में बिठाकर पाक में पहुचायेंगे। जहाँ से वे पुन: अपना खेल दिखाएँगे । पाक में भी अब नहीं है इनके लिए काम, भारत में भी चुनावी मौसम में इनके खिलाफ नहीं हो सकता कोई भी कठिन प्लान। बर्फ भी पिघल रही है। डगर आसन बन रही है। अत: अगले वर्षों में ये भारत में ही खून बहायेंगे। सारे भारत पर अपने आतंक का शासन फैलायेंगे।
Wednesday, May 14, 2008
सत्ता
सत्ता
भाजपा
आगामी चुनाव के बाद
सरकार अवश्य बनाएगी
राम ने साथ न दिया तो,
काशीराम, मायावती,कम्यूनिज्म
या मुस्लिम लीग को,
गले लगायेगी
क्योंकि सत्ता-सिद्धान्त के आगे
सभी मुद्दे बोने हैं,
सत्ता के लिए
राम, कश्मीर, आचार संहिता
तथा चरित्र तो खिलौने हैं।
Tuesday, May 6, 2008
चरित्र का फण्डा-कैसा है ये झण्डा?
भारत देश महान है। सर्वगुणों की खान है। ये मेरा हिन्दुस्तान है। जो ये नारा लगाते हैं, वे तो कम से कम महान नहीं होते। नारे लगाने से कोई महान नहीं हो सकता। राम ने हमारे यहाँ जन्म लिया इस तथ्य से हम सभी राम तो नहीं हो जाते? जिस प्रकार रावण ने हमारे यहाँ जन्म लिया तो हम सभी रावण नहीं हो जाते? वस्तुत: भूतकाल में हम क्या थे? यह महत्वपूर्ण तो है, किन्तु यह हमारी महानता का परिचायक नहीं है। हमारी वर्तमान स्थिति का आकलन वर्तमान जीवन पद्धति व आचरण से ही होगा। उस समय की सामाजिक व्यवस्था भिन्न थी। आज की भिन्न है। यदि हम उस समय की सामाजिक व्यवस्था की कल्पना करें तो कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है, क्योंकि राम की तरह आज कोई भी गद्दी को त्यागने को तैयार नहीं है। सोनिया जी प्रधानमंत्री पद को भले ही लेने से मना कर दें किन्तु वनवास पर जाने के लिए तो कोई भी तैयार नहीं है। क्या हुआ हम कुर्सी पर नहीं बैठे, हम कुर्सी के नियामक बनकर उसको संचालित तो करते ही हैं। हो सकता है कि हम स्वयं भ्रष्टाचार न करते हों किन्तु हम भ्रष्टाचारियों का बचाव तो करते ही हैं। क्या हुआ? हम उच्च मूल्यों की बात करते हैं। हम उन मूल्यों की स्थापना के लिए कुछ भी त्यागने या भोगने को तैयार नहीं हैं। हम सत्य की बात तो करते हैं किन्तु सिर्फ चन्द रुपयों या स्वार्थ के कारण सत्य को सरे राह नीलाम करने को तैयार बैठे हैं। हम दूसरों को चरित्रहीन, भ्रष्टाचारी, कुमार्गी व पापी कहते हैं किन्तु हम स्वयं यह भी विचार नहीं करते कि इन शब्दों की परिभाषा क्या है? कहीं हम भी इनकी हद में नहीं आ रहे?
एक शब्द को ही लेते हैं- चरित्र। यह सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। देश के कौने-कौने में इसका प्रचलन देखने को मिलेगा। बड़ा व्यापक है- चरित्र का फण्डा, यह बन जाता है लोगों के लिए धंधा और चरित्रहीन ही उठाते हैं, इसका झण्डा। चरित्र की बात करते हैं सभी, सभी चरित्र के नाम पर करते हैं दिल्लगी। चरित्रवान का प्रमाण-पत्र सभी पा जाते हैं और चरित्रहीन होकर चरित्र के गीत गाते हैं। चरित्र की बात सभी करते हैं, किन्तु क्या कभी हम इसकी अवधारणा पर विचार करते हैं? विचार करने की बात है- क्या बिना टिकिट यात्रा करने वाला, क्या पंक्ति तोड़कर आगे जाने वाला, क्या धनराशी लेकर भी यात्री को टिकिट न देने वाला, क्या परीक्षाओं में नकल करने वाला, क्या परीक्षाओं में नकल कराने वाला, क्या रिश्वत लेने वाला, क्या रिश्वत देकर सार्वजनिक सेवा में स्थान पाने वाला, क्या मिलावट करने वाला, क्या पड़ोसी को धोखा देने वाला, क्या जाति के आधार पर वोट देने वाला, क्या भाषा के नाम पर दंगे भड़काने वाला, क्या धर्म या जाति के नाम पर राजनीति करने वाला, क्या सार्वजनिक सम्पत्ति को नियमों का दुरुपयोग करके स्वयं हथियाने वाला, क्या अपने कर्तव्य में कोताही बरत कर राष्ट्र व समाज को नुकसान पहु¡चाने वाला, क्या प्रदूषण फैलाकर धरती व आसमान को ही संकट में डालने वाला आदि चरित्रवान, पुण्यवान व सदाचारी है? यदि ऐसे लोग चरित्रवान हैं तो कम से कम मेरे विचार में ऐसे चरित्रवानों से भगवान बचाये। ऐसे लोग किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए धीमा जहर हैं जो उसे धीरे-धीरे खोखला कर रहे हैं।
दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को निश्चित समय पर गंभीरता के साथ पूरा करता है, रिश्वत नहीं लेता है, रिश्वत नहीं देता है, किसी को धोखा नहीं देता है, समाज को हानि पहु¡चाने वाले किसी भी कृत्य में सिम्मलित नहीं होता है। जिसका जीवन सार्थक व पारदर्शी है। जो न केवल स्वप्नदर्शी है, वरन् व्यावहारिक भी है( जो व्यावहारिकता के नाम पर झू¡ठ नहीं बोलता) जो कहता है, वही करता है और जो करता है वही कहता है, जो अपने कुकर्मो को छिपाकर अपना चरित्र नहीं गढ़ता है। उसके वैयक्तिक जीवन को लेकर, वे लोग जो अपने आप को उससे हीन समझते हैं, अपनी हीनता के भाव के वशीभूत उसे दुनिया¡ की नजर में से गिराने के लिए या अपने आपको श्रेष्ठ मानकर अह्म पालने के लिए उसके चरित्र को लांक्षित करते हैं। चरित्र का आशय केवल स्त्री-पुरुष सम्बन्धों से ही क्यों लिया जाता है? प्रसिद्ध व्यंगकार श्री हरिशंकर परसाई के अनुसार, `चरित्र केवल दोनों टा¡गों के बीच की ही विषय-वस्तु क्यों है?´ व्यक्ति का जो व्यवहार उसके और उसके साथी के बीच ही सीमित है, जिससे वह या उसका साथी कोई भी असंतुष्ठ नहीं है, जिससे किसी को भी कोई कष्ट नहीं है केवल ऐसे व्यवहार से तो व्यक्ति को चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है किन्तु जो लोग अपने कृत्यों से सार्वजनिक जीवन को ही कष्टप्रद बना रहे हैं, जो लोगों के प्राणों को ही संकट में डाल रहे हैं। जो वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति की खातिर रिश्वत लेकर या देकर सार्वजनिक सेवाओं को ही कमजोर कर रहे हैं, जिनके कृत्यों से समुदाय का अस्तित्व ही संकट में पड़ रहा है, जो सत्ता के लिए झू¡ठ पर झू¡ठ बोले जा रहे हैं, जो दुश्मन को भी गले का हार बता रहे हैं और अपने भाई का ही गला काट रहे हैं। इस प्रकार के लोग कैसे चरित्रवान हैं? विचार करने की बात है।
सार्वजनिक जीवन की अपेक्षा वैयक्तिक जीवन की शुचिता या योन व्यवहार को ही व्यक्ति के मूल्यांकन का मापदण्ड क्यों माना जाता है। यह मापदण्ड व्यक्ति को सबल बनाता है या नहीं संदिग्ध है किन्तु समुदाय को कमजोर अवश्य करता है। चरित्र को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचारियों , मिलावटखोरों, झू¡ठ में पारंगत हस्तियों, धर्म के ठेकेदारों, आडम्बरी साधुओं, कर्तव्य विमुख नेताओं व अधिकारियों को चरित्रहीनों के खिताब से नवाज कर उनका सार्वजनिक बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता? अपनी आर्थिक मजबूरियों व सामाजिक अत्याचारों के फलस्वरुप अपनी देह को बेचकर अपनी आजीविका कमाने वाले महिला/पुरुष लोगों के अंगों को बेचकर मालामाल होने वाले सफेदपोश डाक्टरों, अधिकारियों या नेताओं की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ट क्यों नहीं हैं? अपने पर्दे के पीछे कुकृत्यों को छिपाने वाले महिला/पुरुषों से अपनी मजबूरियों या सामाजिक अन्याय के चलते कोठों पर कार्य करने वाले, वैश्या-वृत्ति को ही ईमानदारी से अपनी आजीविका मानने वाले व्यक्ति श्रेष्ट क्यों नहीं हैं? वास्तविकता यह है कि चरित्र के बारे में हमारी अवधारणाए¡ एकांगी है, जिन्हें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार श्लीलता और अश्लीलता की अवधारणाए¡ समय सापेक्ष हैं, उसी प्रकार चरित्र की अवधारणा भी एकांगी नहीं समाज सापेक्ष है या होनी चाहिए। जो व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व समर्पित है और जो किसी के साथ भी किसी प्रकार का अत्याचार, अन्याय व जबरदस्ती करने का विचार भी मन में नहीं लाते, ऐसे व्यक्तियों को किसी से भी चरित्र-प्रमाण पत्र हासिल करने की आवष्यकता नहीं है, खासकर ऐसे लोगों से जो स्वयं ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के कारण चरित्रहीन है, जो वैयक्तिक स्वार्थों को सर्वोच्चता देने के कारण स्वयं ही समुदाय को हानि पहु¡चा रहे हैं, जो लोकसेवक होते हुए भी लोक का अहित करने के कारण समाज विरोधी हैं जो लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को हानि पहु¡चाकर देष को कमजोर कर रहे हैं, जो अपनी कमजोरियों के चलते समाज के उन्नयन में बाधक हैं, ऐसे लोगों के पीछे चलने की अपेक्षा, हमें ऐसे लोगों के पीछे नही, साथ चलना चाहिए जिनका सामाजिक जीवन सुचिता व पवित्रता लिए हुए है। वास्तव में चरित्र की अवधारणा ऐसे व्यक्तियों के कृत्य ही निर्मित करेंगे।
Wednesday, April 30, 2008
यहाँ वही है हंसता दिखता
स्वार्थ ही हमको नित्य रुलाता, स्वार्थ ही नित तड़फाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
तू काँटों को फूल समझ ले,
आग को ही तू कूल समझ ले
भूल हुई जो सुधर न सकती,
खुशियाँ अपनी धूल समझ ले।
जो भी बनता साथी यहाँ पर, रस लेकर उड़ जाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
हँसने वाले मिलेंगें बहुत
चंद क्षणो को साथ चलेंगे।
सुविधा जब तक दे पाए
साथ में तेरे चलते रहेगें।
जिसको तेरी चाहत होती, उसको नहीं तू भाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
मृत्यु मित्र है, आनी ही है,
प्रेम से गले लगानी ही है
स्वार्थ-दहेज की आकांक्षा क्यों?
मृत्यु-प्रेयसी पानी ही है।
दुनिया में जो प्रेम ढूढ़ता, अश्रु वही छलकाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
Thursday, April 24, 2008
रोता नभ ?
रोता नभ ?
रोता नभ है, पृथ्वी रोती, सागर भी व्याकुल रोता है।
प्रकृति का कण-कण, रोकर भी आशा का अंकुर बोता है।।
मुस्कान सभी को नहीं मिल पाती,
खुशियाँ नहीं किसी की थाती।
व्याकुलता हर उर में बसती,
नहीं मिले चाहत मदमाती।
कोयल अपना रोना गाती, मयूर नृत्य कर रोता है।
प्रकृति का कण-कण, रोकर भी आशा का अंकुर बोता है।।
जिन्दा जब , तक जीना होगा
अमी नहीं, विष पीना होगा।
जहाँ -जहाँ, रोतीं मुस्कानें,
रोकर भी मुस्काना होगा।
भव-सागर में प्रेम ही मोती, चुगने को लगा ले, गोता है।
प्रकृति का कण-कण, रोकर भी आशा का अंकुर बोता है।।
Tuesday, April 22, 2008
संतोषी सदा सुखी
एक मुकुन्दपुर नाम का एक गॉव था। गॉव के पास ही एक कच्ची सड़क थी वह सड़क ही मुख्यत: वहा¡ से आने जाने का एक साधन थी। उसी गॉव में राधा नाम की एक औरत रहती थी, बेचारी के एक बेटा था। वह दिन भर कड़ा परिश्रम करती तब जाकर खाने पीने की व्यवस्था कर पाती। खाने-पीने के बाद धन बचाकर बच्चे की पढ़ाई में लगा देती। इसी प्रकार मेहनत करके उसने अपने बेटे को हाईस्कूल करा दिया था। उसके बेटे का नाम था रमेश। रमेश भी पढ़ने में मेहनती था अत: वह चाहती थी कि उसका बेटा खूब पढ़े और एक बड़ा आदमी बने।रमेश को पढ़ाने के लिये राधा ने और अधिक काम करना प्रारम्भ किया और जैसे तैसे रमेश को पढ़ने के लिये शहर भेज दिया। रमेश शहर में जाकर कालेज में पढ़ने लगा। उसकी मा¡ महीने के महीने पैसे भेज देती। इसी प्रकार रमेश ने बीण्एण् किया और एक दिन उसकी नौकरी भी लग गयी।राधा को जब यह पता लगा रमेश की नौकरी लग गयी है उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अब उसके सपने पूरे होने का समय जो आया था।
वह सोच रही थी कि अपने बेटे की धूमधाम से शादी करेगी। घर में एक बहू आयेगी तो उसे भी कुछ आराम मिलेगा। राधा एक दिन बैठी पड़ोसिन से बातें कर रही थी कि उसका बेटा कितना अच्छा है? नौकरी लग गयी है---------आदि। उसी समय डाकिया ने उसको एक पत्र दिया जो रमेश का ही था उसमें लिखा था, ``मा¡ मैनें अपने साथ की एक खूबसूरत लड़की से शादी कर ली है।´´ तुम इस बारे में न सोचना। पत्र पढ़ते-2 बेचारी राधा का तो दिल ही टूट गया। बुढ्डी हो गयी जिसकी आशा में उसके भी यही हाल। अब तो बेचारी राधा काम करने लायक भी नहीं रही। क्या करेगी वह। वह कई दिन तक अपने घर में बैठी-2 रोती रहती कई दिन तो घर से बाहर भी न निकली। उसके चार-पा¡च दिन तो बीत गये बिना कुछ खाये पीये।
एक दिन एक साधू भिक्षा मा¡गते-2 आया तो उसने बुढ्ढी को रोते हुये देखा। साधू ने राधा से पूछा कि वह क्यों रो रही है तो उसने उसे सारा दुख कह सुनाया। साधू ने कहा, ``धीरज रखो रोने से क्या होगा,´´ सन्तोष रखो सन्तोषी सदैव सुखी रहता है। यह कहकर वह चला गया। साधू के चले जाने पर वह गा¡व से बाहर सड़क के किनारे झोंपड़ी में रहने लगी। वह वहा¡ से गुजरने वालों को पानी पिलाती। कुछ समय बाद वह स्थान ही प्याऊ के नाम से मशहूर हो गयी। उसे सभी प्याऊ वाली अम्मा कहकर पुकारते वह उसे वहीं खाना दे जाते। वह अब सुखी थी चिन्ता मुक्त थी। वह सभी से कहती बेटा ``सन्तोषी सदा सुखी´´
Tuesday, April 15, 2008
का वर्षा जब कृषि सुखाने?
का वर्षा जब कृषि सुखाने
आशा का पांच वर्ष का साथ था उसके साथ, वह उसे बहुत प्यार करती थी। कितना चाहती थी वह गोविन्द को। गोविन्द ही तो उसका सब कुछ था मित्र, साथी, प्रेमी कौन था गोविन्द के सिवा जिसको आशा अपना समझती। जिस समय कॉलेज में प्रवेश लिया था तो गोविन्द से ही उसे सहारा मिला था कॉलेज में पढ़़ने का। वह ऊबने लगी थी कॉलेज की जिन्दगी से, अगर गोविन्द सही समय पर उसे न मिला होता तो वह कॉलेज छोड़कर चली गयी होती घर वापस । वही गोविन्द, जिसने उसे सबसे अधिक चाहा था, वही गोविन्द जो उसकी आ¡खों का तारा था, आज उसे अच्छा नहीं लग रहा था किन्तु फिर भी वह उसे नहीं भुला पा रही थी। वह सोच रही थी क्या यही वह गोविन्द है जिसने उससे वायदा किया जीवन भर साथ देने का। आज उसने ही कह दिया था कि तुम्हारी हैसियत मेरे लायक नहीं है। क्यों नहीं हू¡ मैं गोविन्द के लायक, क्या कमी है मुझमें? रूप-----रंग--शिक्षा सभी कुछ तो है मेरे पास ! क्या पैसा ही सब कुछ होता है? वह पूरी रात रोती विलखती रही थी कि क्यों नहीं हो सकती मैं गोविन्द के लायक? और उसने निश्चय किया था कि वह गोविन्द की हैसियत के लायक बनेगी। खूब मेहनत करेगी। खूब कमायेगी पैसा और क्या चाहिये उसे? कहा¡-कहा¡ नहीं भटकी वह नौकरी की तलाश में, कितनी कम्पनियों, फैिक्ट्रयों में दिये थे इन्टरव्यू आशा ने। किन्तु आशा को कहीं से भी आशा नहीं मिली, केवल निराशा ही हाथ लगती उसको किन्तु आशा हार मानने वाली नहीं थी। वह ढं़ूढ़ती रही नौकरी और उसे आखिर मिल गयीण् एक स्कूल में मास्टरी की नौकरी। वह परिश्रम पूर्वक स्कूल में पढ़ाती बच्चों को। केवल नौकरी से ही सन्तोष नहीं हुआ आशा को। स्कूल समय के बाद और पहले वह अपने कमरे पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। बड़ी ही व्यस्त थी आशा। सुबह चार बजे उठना, चाय पीकर पा¡च बजे से पढ़ाना शुरू कर देती बच्चों को। पा¡च बजे से 9 बजे तक लगातार पढ़ाती रहती थी। और दस बजे से पा¡च बजे तक का स्कूल, फिर रात के दस बजे तक ट्यूशन। आशा जैसे पागल हो गयी थी। पैसा केवल पैसा ही से प्यार था आशा को। अब उसने अपना एक लैट खरीद लिया था, जिसमें वह उसके माता-पिता तीनों रहते थे किन्तु आशा की व्यस्तता में कोई कमी न थी। आशा के माता-पिता बड़ी चिन्ता करते थे उसकी शादी के बारे में, किन्तु वह तो कुछ सुनती ही न थी। उसे कार जो खरीदनी थी गोविन्द की हैसियत की बराबरी करने को। आज आशा बहुत प्रसन्न थी। आज वह नयी कार खरीदकर लायी थी। आज वह अपने को गोविन्द की हैसियत का पाकर बड़ी प्रसन्न थी। वह कार लेकर सीधे लैट पर गयी, माताजी ने भोजन करने के लिये कहा तो इन्कार कर दिया क्योंकि आज तो उसे भूख ही न थी। वह तैयार होकर सीधी गोविन्द के लैट पर पहु¡ची तो सन्न रह गयी जब उसने यह सुना कि गोविन्द यह लैट बेचकर पीछे गली में एक छोटे से मकान में पहु¡च गया है। वह पता लेकर वहा¡ गयी तो दरवाजा गोविन्द ने ही खोला। वह आशा को देखकर चौंक पड़ा। गोविन्द की शादी हो चुकने के तीन वषZ बाद उसकी पत्नी ने उसकी उदासीनता के कारण तलाक ले लिया। माता पिता का देहान्त हो गया था। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण लैट बेचना पड़ा। वह इस दुविधा में अकेला रह गया था। पछता रहा था अपने बीते हुये कल पर। वह आशा की याद में घुट रहा था। आज आशा को देखकर चौंक पड़ा किन्तु आज आशा को पहली बार आभास हुआ था कि वह शादी की अवस्था पार कर चुकी है। जिसके लिये वह इतनी मेहनत कर रही थी उसको पाया किन्तु ``का वषाZ जब कृषि सुखाने।´´
Saturday, April 12, 2008
शिक्षक
शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
काम,क्रोध,पद,लिप्सा से घिर,अपने मन को कलुषित करते।
शिक्षा को व्यवसाय बनाकर,सरस्वती को नंगा करते।।
शिक्षा तो संस्कारित करती, संस्कारों को ये क्या जानें?
शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
शिक्षक का पद पाकर के,वणिकों की बुद्धि अपनाते।
बच्चों के खाने को आता, कमीशन खाया,घर म¡गवाते।
असत्य भ्रष्टता स्वार्थों से घिर,व्यक्तित्व विकास,ये क्या जाने?
शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
छात्रों को शिक्षा दे पाते,नव निर्माण कर वे दिखलाते।
त्याग बिना जो भोग करें नित,मानव वंश का दंश बढ़ाते।
पहले खुद को शिक्षित कर लें, शिक्षार्थी भी खुद को मानें।
शिक्षक तो बन जाते हम सब पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
Tuesday, April 1, 2008
दहेज-पहला पति
दहेज-पहला पति
रमेश कार्यालय में काम करते-करते थक गया था। थकान भी स्वभाविक एवं नियमित होने वाली थी क्योंकि कार्यालय की आठ घन्टे की डयूटी थकान तो पैदा करेगी ही। रमेश ने अपने दरवाजे पर आते ही घन्टी बजायी। वह काफी समय प्रतीक्षा करता रहा किन्तु अन्दर से कोई हलचल नहीं हुई। पुन: घन्टी बजाने पर उमा ने कहा, `पिछला दरवाजा खुला है, पीछे होकर आ जाओ। रमेश पीछे के दरवाजे में से होकर अन्दर पहु¡चा तो उमा पलंग पर लेटी-2 पत्रिका पढ़ने में मशगूल थी मानो उसे रमेश के आने की जानकारी ही न हो। रमेश ने कपड़े उतारे, जूतों के तस्मे खोलकर जूते उतार दिये एवं कपड़े पहनने के लिये कपड़े खोजकर बाथरूम में घुस गया। कपड़े बदलने के बाद पानी पीकर उमा के पास पहु¡चा तो उसे देखकर उमा ने कहा, किचिन में खाना रखा है जाकर खालो। वह चुपचाप खाना खाने चला गया। रमेश व उमा की शादी लगभग दो वषZ पूर्व दिसम्बर में हुई थी। उमा के पिता ने रमेश के पिताजी को एक लाख रूपये नकद एवं अन्य भौतिक सुख-सुविधा का सामान दिया था। शादी के बाद से ही उमा ने कभी भी रमेश को महत्व नहीं दिया । प्रारम्भ में तो रमेश ने उमा की उदासीनता को उसका संकोच समझा था कि उसकी पत्नी का पहला पति होकर वह न होकर उसके पिता द्वारा दिया गया दहेज है।
Saturday, March 22, 2008
पूजा का प्रतिफल ?
पूजा का प्रतिफल ?
वह सुबह-सुबह घूमने जा रहा था। रास्ते में द्रुत गति से जाते मैस प्रभारी दिखाई दिए। उनके हाथ में माचिस व अगरबत्ती लगी थी। उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा, `सुबह-सुबह कहा¡ चले सर ?´ उन्होंने उसी गति से चलते हुए जवाब दिया, ``बालाजी के मिन्दर जा रहा हू¡, पूजा करने के बाद मैस में निकल जाउ¡गा। वहा¡ भी देखभाल करनी पड़ती है। जिम्मेदारी का काम है।Þ वह यह विचार करता हुआ कि ये सर इस उम्र में भी कितनी शीघ्रता से कामों को निपटाते हैं, उनके प्रति श्रद्धावनत हो गया। वापसी के समय वे मैस से वापस आते दिखाई दिये। उनके साथ मैस का एक कर्मचारी भी था, जिसके हाथ में सामान की एक गठरी थी। सामने पड़ते ही मैस प्रभारी व मैस कर्मचारी दोनों उसे देखकर अचकचा गये और बातचीत का मौका दिए बिना, प्रभारी जी मुख्य द्वार से अपने क्वाटर में गए तो मैस कर्मचारी ने पीछे के दरवाजे से उसी क्वाटर में प्रवेश किया। पूजा का प्रतिफल इतनी शीघ्रता से मिलता देखकर वह आश्चर्य-चकित रह गया।
मुबारक होली
फूलों की खुसबू, हमारा प्यार।
गाओ गीत, बिखेरो मुस्कान,
आपको मुबारक होली का त्यौहार।
प्यार के रंग से भरो पिचकारी,
स्नेह से रंग दो दुनिया सारी।
रंग न जाने भाषा, न कोई बोली,
आपको मुबारक हो, मित्रो होली।
Friday, March 21, 2008
नैतिकता- इक्कीसवीं सदी की
नैतिकता- इक्कीसवीं सदी की
मैं विद्यालय से वापस लौटा ही था। पहले से ही मूड़ खराब था, रास्ते में एक घटना और घट गई( जिसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। मैं चिन्तित हो उठा, `यह क्या होता जा रहा है, नैतिकता का पतन और कहा¡ तक होगा? आजकल के युवा दूसरों का सम्मान करना तो जानते ही नहीं, अपने मा¡-बाप व िशक्षकों तक का भी नहीं, और तो और लड़किया¡ भी इस कदर बेशर्म हो जायेंगी, आज से पचास वषZ पूर्व कोई सोच भी सकता था क्या?´ मैं इसी चिन्तन में था कि मेरा मित्र भविष्यवक्ता उपदेशक आ टपका। आते ही चाय-नाश्ते के लिए ऑर्डर दिया, गोया मेरे घर में नहीं किसी होटल में पधारा हो। मेरी और एक मुस्कान फेंकी और तुरन्त ही मेरी दयनीय स्थिति को समझते हुए बोला, `` अरे! आज फिर आपके सड़े-गले सिद्धान्तों और चौंदहवी सदी की नैतिकता का खून हो गया और आप उसका मातम मना रहे हैं? ´´ वह खिलखिलाकर ह¡सता रहा। जब मुझे अधिक गम्भीर देखा तो समझाने के अन्दाज में बोला, `` हम इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में जी रहे हैं। क्रांतिकारी परिवर्तनों की सदी- इक्कीसवीं सदी। धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक व नैतिक मानदण्डों को बदलने वाली इक्कीसवीं सदी। उन नवीन मानदण्डों को अपनाने व नई पीढ़ी के साथ समन्वय करने की क्षमता पैदा करो मेरे मित्र। इक्कीसवी सदी के अन्त तक कितना विकास हो चुका होगा, उसकी कल्पना करो मेरे मित्र। इक्कीसवीं सदी जिसमें बच्चे का जन्म मा¡-बाप के शारीरिक संसर्ग का परिणाम नहीं होगा। शारीरिक सम्पर्क तो चाहे जिससे आनन्द प्राप्ति के लिए किया जा सकेगा। लेकिन इस शारीरिक सम्पर्क के कारण बच्चे का जन्म, राम! राम! कैसी पिछड़ी बातें सोचते हो। इक्कीसवीं सदी में बच्चा पैदा करने से पूर्व गहन विचार मन्थन किया जायेगा। मा¡, वैज्ञानिक सिद्धान्तों, कार्य-कारण व परिणामों का विश्लेषण कर यह तय करेगी कि वह किस व्यक्ति के शुक्राणुओं पर कृपा कर उन्हें गर्भ में ठहरने की अनुमति दे। इस वैज्ञानिक सोच व वैज्ञानिक विचार मन्थन के पीछे एक वैज्ञानिक उद्देश्य होगा कि भविष्य में पैदा होने वाला जीव वैज्ञानिक लड़का हो। ठीक इसी प्रकार बाप भी विचार मन्थन, विश्लेषण व संश्लेषण के द्वारा यह तय करेगा कि वह किस महिला की कोख को पवित्र करे ताकि उच्चकोटि का वैज्ञानिक बच्चा ही उत्पन्न हो। किसी महिला के साथ आनन्द के लिए संसर्ग करना एक अलग बात है और अपने शुक्राणुओं से बच्चा पैदा करना एक अलग बात। हा¡, वैज्ञानिक बच्चा, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रबन्धन, वैज्ञानिक प्रशासन, वैज्ञानिक श्रम, वैज्ञानिक विचार, वैज्ञानिक राजनैतिक व्यवस्था व वैज्ञानिक नैतिकता, जिसे धर्म की गन्ध तक न लगी हो( ठीक उसी प्रकार धर्म, नैतिकता व सदाचरण निरपेक्ष वैज्ञानिक बच्चा। इक्कीसवीं सदी जिसमें मा¡-बाप अपने बच्चे को प्रेरणा देंगे कि वह नौकरी करने के स्थान पर किसी ख्याति-प्राप्त राजनीतिक तन्दूरी डाकू के चमचों में अपना स्थान बनाये। मा¡, अपनी बेटी के लिए मनौती मा¡गेगी कि वह किसी लाइसेन्स सुदा वैज्ञानिक वैश्यागृह में, जिसे पर्यटन व संस्कृति विभाग से मान्यता प्राप्त हो, महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करे। वह इस सड़ी-गली नैतिकता की हवा भी अपनी पुत्री को नहीं लगने देगी। वह उसको ऐसे अत्याधुनिक वैज्ञानिक स्कूल में, क्षमा करें स्कूल में नहीं, कोचिंग सेन्टर में भर्ती कराएगी जिसमें, वैज्ञानिक आकर्षण कला (artofattrection) क्या है? कामशास्त्र तो पुरातन भारतीयता का प्रतीक है सेक्स विज्ञान का अध्ययन, वैज्ञानिक, वाणििज्यक व व्यवहारिक प्रयोग, वैज्ञानिक लाभ प्राप्त करने के लिए किस प्रकार किया जा सकता है? के अध्ययन के साथ-साथ अमेरिकन मुक्त योनाचार का प्रयोग कराने के लिए उच्च-स्तर की अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला भी हो। जिसमें प्रिशक्षण दिया जाता हो कि कैसे अपने उभरे अंगो को प्रदर्शित करके भ्रष्टाचारी नेताओं व अधिकारियों को रिझाकर उनके बिस्तर पर पहु¡चा जाता है? इक्कीसवीं सदी के अन्त में उच्च-स्तर के वैज्ञानिक विद्यालयों के विज्ञापन प्रकािशत व प्रसारित होंगे- `` अपने बच्चों के शानदार व उज्ज्वल भविष्य के लिए हमारे यहा¡ प्रवेश दिलाएं। हमारे यहा¡ अनुभवी व फर्जी डिगि्रयों से विभूषित महान झू¡ठे, महान लुटेरे, महान बेईमान, महान सैक्स विषेशज्ञ िशक्षक नियुक्त हैं। हमारे प्राचार्य महोदय तो `राष्ट्रीय झू¡ठवक्ता´ व `भ्रष्टाचार िशरोमणि´ जैसी मानद् उपाधियों से कई बार विभूषित किए जा चुके हैं। कुछ अतिरिक्त शुल्क देकर वैज्ञानिक झू¡ठे, वैज्ञानिक लुटेरे, वैज्ञानिक बेईमान, वैज्ञानिक बलात्कारी व वैज्ञानिक सैक्सकला विशेषज्ञों की सेवाए¡ भी प्राप्त की जा सकती हैं। सभी के लिए सैक्स लैब की सुविधा नि:षुल्क है, जिसमें वैज्ञानिक ढंग व वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से, प्रिशक्षित किया जाता है कि किस प्रकार संसर्गजनित रोगों से पूर्णत: मुक्त रहते हुए, निडर होकर चाहे किसी के साथ, वैज्ञानिक ढंग से शारीरिक सम्बंध बनाकर मनोंरंजन के साथ-साथ व्यवसायिक लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है। छात्र-छात्राओं को अनुशासन के नाम पर परेशान नहीं किया जाता, उन्हें कृत्रिम प्राकृतिक वातावरण में अपनी गतिविधियों को संचालित करने के लिए पूर्णत: उन्मुक्त छोड़ दिया जाता है। ध्यान रहे हमारे यहा¡ की डिगि्रयों को अमेरिकन राष्ट्रपति सैक्स संस्थान, भारतीय भ्रष्टाचार बढ़ाओं समिति व अन्तर्राष्ट्रीय पाक आतंकवाद संस्थान द्वारा ए प्लस की मान्यता प्राप्त है।´´ उपदेशक कुछ पलों के लिए रूका, कुछ चिन्तनोपरान्त मुझे समझाने लगा। यदि तुम्हें इस शताब्दी में सफल होना है तो परम्परागत नैतिकता के लबादे को त्यागकर वैज्ञानिक नैतिकता को अपनाना होगा। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य की अपनी अवधारणाए¡ बदलनी होंगी। अवधारणायें यू¡ ही नहीं बदलतीं, इसके लिए अपने खान-पान को बदलना होगा। तूूमने सुना ही होगा, `जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन्न´। यदि तुम अपनी कमाई का अशुद्ध अन्न ही खाओगे तो तुम्हारी बुिद्ध का विकास कैसे होगा। तुम्हें शर्म आनी चाहिए, खाने की चोरी को चोरी कहते हो( यह चोरी नहीं बरजोरी है, जिसमें राधा-श्याम की होरी का मजा आता है और संसार गुणगान भी गाता है। बुिद्ध का विकास तो तभी होगा, जब तुम किसी सरकारी भण्डार का माल लूटकर खाओगे। ऐसा अन्न तुम्हारे मस्तिष्क का विकास करेगा। अपने लिए नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य के लिए ही सही, आखिर नई शताब्दी के साथ अपने आप को समायोजित करना ही पड़ेगा। नई शताब्दी ही नहीं, सहस्राब्दी भी बदल गई है और तुम हो कि चौदहवीं शताब्दी की अवधारणाओं को लिए घूम रहे हो। हमें प्रो-एिक्टव होकर एडवान्स में सब-कुछ बदलना होगा अन्यथा पाकिस्तान हमसे आगे निकल जायेगा और हम पिछड़े ही रह जायेंगे। अब तो समझना ही होगा, ईमानदार, सत्यवक्ता, समानतावादी, ध्येयनिष्ठ, महिलाओं व बुजुगोZ के लिए सम्मान की बात करने वाले पापी हैं। अपने बच्चों को इनकी छाया से भी बचाना होगा। ये सब कहना भी भयंकर गालिया¡ देने के बराबर है। आशीवार्द देना भी नए सिरे से सीखना होगा अन्यथा लोग अभिवादन करना भी बन्द कर देंगे। नई सहस्राब्दी में आशीर्वाद दिया जाना चाहिए-- अन्तर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचारी बनो, ईश्वर करे लूटमार विशेषज्ञ बनकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करो, सैक्स व्यापार में कुशलता प्राप्त कर अन्तर्राष्ट्रीय सप्लायर बनो, अन्तर्राष्ट्रीय पाक आतंकवाद संघ के मुखिया चुने जाओ। इन्टरनेट पर जब दो महिलाओं में झगड़ा हो जायेगा तो पहली दूसरी को गालिया¡ देगी, `तेरा बेटा ईमानदार हो जाय, तेरा बेटा वास्तविक देशभक्त हो जाय, तेरे बेटे को भ्रष्टाचार में स्नातक की उपाधि न मिले, तेरी बेटी का अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक वैश्यालय का लाइसेन्स जब्त हो जाय।´ इन सब गालियों से स्वाभाविक है कि सहनशील से सहनशील महिला भी ताव में आ जायेगी। गुस्से में लाल-पीली होकर गाली बम छोड़ेगी, ``तेरी बेटी सुधारवादी नैतिकतावादी पारम्परिक िशक्षक से शादी कर ले।´´ यह सबसे बड़ी गाली होगी क्योंकि शादी करना महिलाओं के लिए अपराध की श्रेणी में गिना जायेगा तथा ऐसी महिला को प्रगतिशील महिला मंच की सदस्यता से वंचित होना पड़ेगा। शादी करने वाली ही नहीं, उसके परिवार के लोग भी प्रगतिशीलता के विरोधी समझे जायेंगे तथा समाज से बहिष्कृत होने के हकदार होंगे। इक्कीसवी सदी के अन्त तक शादी की प्रथा समाप्त हो जायेगी। शादी, वह भी नैतिकता के रोग से ग्रस्त सुधारवादी िशक्षक से। राम! राम! इससे तो अच्छा था कि वह वैज्ञानिक ढंग से आत्महत्या ही कर लेती। बेचारी! लड़की के मा¡-बाप के पास उनके मित्र लुक-छिपकर संवेदना प्रकट करने आयेंगे। छिपकर इसलिए कि उनके पास जाने के कारण, उन्हें भी प्रगतिशीलता का विरोधी न समझ लिया जाय। पाठक कृपया भूल सुधार लें, लड़की के स्थान पर महिला पढ़ें। लड़किया¡ क्या शादी करेंगी? चालीस तक की उम्र तो सीखने-सिखाने की उम्र होती है। जब तक दो-चार बार गर्भपात न करा दिया हो तब तक तो शादी के बारे में विचार उत्पन्न होना संभव ही नहीं। उपदेशक ने आगे समझाया, िशक्षण कार्य के साथ-साथ लेखनी को भी पूर्ण विराम दे दो मित्र। अन्यथा संकट में फ¡स जाओगे। मैं कब तक और कहा¡-कहा¡ बचाऊ¡गा? सदी के अन्त तक लेखन को अपराध घोिशत कर दिया जायेगा और लेखक भगोड़ा अपराधी। लेखन कर्म अत्यन्त खतरनाक होने के कारण इसके लिए लाइसेन्स लेना अनिवार्य होगा। जिसके लिए किसी ऐसे लेखक का चमचा रहने का बीस साल का अनुभव आवश्यक होगा, जिसे अक्षर ज्ञान न हो व कलम पकड़ना न आता हो। जिसकी चोरी की रचनाए¡, न केवल स्वघोषित राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकािशत हो चुकी हों, वरन् इन्टरनेट पर जानी-मानी लेखिकाओं के साथ हमबिस्तर होने की खबरें भी प्रकािशत व प्रसारित होती रहती हों। यही नहीं कम से कम बीस सुन्दरियों को, जो अपने साथ हमबिस्तर होने के पुरुस्कार स्वरूप, कवयित्रियों के रूप में स्थापित करवा चुका हो। यही नहीं उसे परमाणुशक्ति संपन्न अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी संघ की केन्द्रीय समिति द्वारा मान्यता भी प्राप्त हो।
Wednesday, March 19, 2008
कैसा बसन्त?
कैसा बसन्त?
कोयल की ये मधुर मल्हारें,
उसको लगतीं करुण पुकारें,
सबसे यही मनोती मॉगे,
प्रियतम आकर उसे दुलारें।
इन्द्रधनुष की सभी छटाएं,
उसको अंगारे बरसाएं,
कैसा बसन्त वह क्या जाने ,
निशा वियोग की जिसे सताएं।
काक तू वैरी रोज पुकारे,
प्रियतम कौ सन्देश सुना रे,
मुझ विरहनि को धीर बंधा के,
अपनी बिगड़ी जात बना रे।
Monday, March 17, 2008
मुस्कान का राज
वह सी.बी.एस.ई। से सम्बद्ध केन्द्र सरकार द्वारा संचालित विद्यालय में कार्यरत था। उसी विद्यालय में विद्यालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का लड़का भी पढ़ता था। उस लड़के के बारे में सभी अध्यापक आपस में बातचीत करते, ``यह कभी पास नहीं हो सकता, उसे लिखना ही नहीं आता, पास क्या होगा ?, उसके पिता को कौन समझाये ? अच्छा रहे, यदि वह इस बच्चे को यहा¡ से हटाकर किसी हिन्दी माध्यम वाले विद्यालय में भर्ती करा दे, आदि' एक दिन उसने उस बच्चे के पिता को विश्वास में लेकर समझाया कि बच्चे को राज्य के किसी हिन्दी माध्यम वाले विद्यालय में भर्ती करा दे। इस सम्बन्ध में बच्चे के परीक्षा परिणाम व अन्य अध्यापकों के विचारों को भी उसके सामने रखा। रुपये पैसे की समस्या हो तो अपनी तरफ से सहयोग का आश्वासन भी दिया। किन्तु उस कर्मचारी ने उसकी बात को महत्व न देकर, मुस्कराकर कहा, `विचार करूँगा , बच्चे से बात करूँगा ।´ उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कर्मचारी अपने बच्चे के प्रति गम्भीर होने की जगह मुस्करा क्यों रहा है ? मार्च में सीण्बीण्एसण्ईण् की परीक्षा प्रारंभ हुई। उस दिन दसवीं का पहला प्रश्न-पत्र था। सभी िशक्षक आपस में काना-फूसी कर रहे थे, `और कोई पास हो या न हो, उसका लड़का अवश्य पास होगा, पास ही नहीं होगा, अच्छे अंक भी लायेगा।´ उसने साथी िशक्षकों से जानने की कोिशश की तो पता चला कि उसने जिस कर्मचारी को अपने बच्चे को विद्यालय से हटाने के लिए कहा था। उस बच्चे के स्थान पर कोई दूसरा छात्र परीक्षा दे रहा है। उसने पुिष्ट के लिए विद्यालय के वरिष्ठतम् िशक्षक से पूछा तो मालुम पड़ा कि छात्र के हाथों पर पटि्टया¡ बगैरा बा¡ध कर, चिकित्सक से प्रमाण-पत्र बनवाकर, उसे कृत्रिम रूप से अस्वस्थ दिखाकर, सीण्बीण्एसण्ईण् के नियम के तहत कक्षा 9 के एक योग्य छात्र को उसके पास लिखने के लिए सहायक के रूप में बिठाया गया था तथा उसके बैठने की व्यवस्था भी दूसरी जगह की गई थी। सहायक के रूप में जिस छात्र का चयन किया गया था, उसके बारे मेें सभी अध्यापकों को विश्वास था कि वह न केवल पास होगा, बल्कि अच्छे अंक भी लायेगा। आज उसे उसकी मुस्कराहट का राज समझ में आ गया था। साथ ही यह भी कि वह मुस्कराहट उसकी स्वयं की नहीं बल्कि प्राचार्य महोदय की मुस्कराहट की छाया थी, जिन्होंने उसे अच्छे कार्य के लिए पुरस्कृत करने की योजना बनाई थी। परीक्षा प्रभारी, केन्द्राधीक्षक सहित सभी अधिकारी सहित सभी िशक्षण व िशक्षणेत्तर कर्मचारियों का प्रत्यक्ष व तटस्थ समर्थन प्राप्त था ही।
Sunday, March 16, 2008
मुबारक होली
मुबारक होली
होली रहे मुबारक तुमको, जीवन में खुशहाली लाए।
फूले-फले परिवार तुम्हारा, बहुरंगो से तुम्हें सजाए।
महके हरदम तन का उपवन, मन खुशियों से गाए।
खुशियों में तुम डूबो इतनी नहीं याद हमारी आए।
होली की दें मुबारकवाद हम, क्रोध नहीं हम पर करना।
पारदर्शिता जीवन में हो, नहीं किसी से तुमको डरना।
सारे कष्ट, दु:ख और चिन्ता पायें हम तुमसे है हरना।
तन्हाई में खुश हो लेंगे , तुम्हारी महफिल में हों सजना।
एक वर्ष है होने वाला हमने दर्शन पाए थे।
दो दिन ही बस पास रहे जो हमरे मन में भाए थे।
हम तो राह देखते अब भी, तुमने ही तरसाए थे।
तुम्हारे सानिध्य में हम, उस दिन कितने हरषाए थे।
गुलाबी कपोल, अधरों पर मुस्कान।
बोली में जिसके कोयल गाए गान।
मानिनी का मन-मयूर नृत्य करे हर-पल।
भाग्यशाली कितना, मिली जिसे सुख-खान।
होली लाए खुशहाली, फूल उठे डाली-डाली।
महक उठे अंग-अंग, मन नहीं रहे खाली।
कपोलों पे अरूणाई, सुधा भरी अधर-प्याली।
कलियों से पुष्प खिलें, सीचें बगिया को माली।
Thursday, March 13, 2008
प्रवचन
थोड़ी देर उपरांत वही शिक्षिका महोदया उनसे मुखातिब हुईं , 'सर! मैं अपने भाई के यहाँ ठहरी हूँ। किसी होटल वाले से होटल में ठहरने का बिल बनवा दीजिये न। सी.बी.एस.ई.से होटल में ठहरने का खर्चा तो लेना ही होगा न।' शिक्षक को उनका प्रवचन समझ में आ गया।
Sunday, March 2, 2008
कविता
बीज शांति के बो गयी है।
शांति मृत्यु की मानो छाया,
जीवन-विहीन ही चलती काया।
खोया प्रेम, ईर्ष्या नहीं है।
सपने मरे, दिखती न माया।
बेचैनी कहाँ? अब सो गयी है।
कविता कहाँ? अब खो गयी है।
जीने की अब, नहीं है इच्छा।
मृत्यु की भी, नहीं प्रतीक्षा।
चाहते है, संन्यासी जो,
झेल रहा हूँ , वह तितिक्षा ।