नहीं पूर्ण मैं, लगा हलन्त्!
नहीं, जानता कहाँ बसन्त??
सर्दी पीड़ित है तन-मन।
कोहरे से ढका हुआ जन-जन।
भाव बर्फ से आज जमे,
जीवन पथ दिखता निर्जन।
जीवन में है लगा हलन्त्!
नहीं, जानता कहाँ बसन्त??
बचपन भी तो जी न सका।
दो घूँट प्रेम के पी न सका।
कठोरता को नित झेला,
मैं खिलता बचपन दे न सका।
अनुशासन बन गया हलन्त्!
नहीं, जानता कहाँ बसन्त??
पास में जब कोई आया।
सिद्धान्तों का राग सुनाया।
गले किसी को लगा न सका,
कदम-कदम धोखा खाया।
अपराधी बन गया सन्त!
नहीं, जानता कहाँ बसन्त??
No comments:
Post a Comment
आप यहां पधारे धन्यवाद. अपने आगमन की निशानी के रूप में अपनी टिप्पणी छोड़े, ब्लोग के बारे में अपने विचारों से अवगत करावें.