नर सदैव ही हारा है
कैसा प्यार, नहीं हैं समझे, माँगों का खुला पिटारा है।
नारी की माँगो के आगे, नर सदैव ही हारा है।।
प्रेम प्रदर्शन करती भारी।
अंगों से है उतरी सारी।
मुस्कान की आरी चलती,
नर की मति जाती है मारी।
नारी से पीड़ित नर को भी तो नारी का ही सहारा है।
नारी की माँगो के आगे, नर सदैव ही हारा है।।
कभी प्रेम से पागल करती।
सब कुछ सौंप समर्पण करती।
नजरें जब टेढ़ी करती है,
बड़ों-बड़ों के होश है हरती।
घायल करती, मरहम बनती, बच्चे जैसा दुलारा है।
नारी की माँगो के आगे, नर सदैव ही हारा है।।
रस्सी बिन बांधे नर को।
पूरण करती है जीवन को।
प्रेम में करती सब है अर्पण,
कपट मात देती नर को।
नर ने अपने कदम-कदम पर, नारी को ही पुकारा है।
नारी की माँगो के आगे, नर सदैव ही हारा है।।
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