Friday, December 19, 2014

बजी अन्तर की शहनाई आस भरी

5.05.2007

गहराई असीमित अंधकार भरी
हाहाकार हरक्षण चीत्कार भरी
खतरों से हताश था चला जाता
आई थी फुहार एक आश भरी

मरूस्थल की रेत मरूमरीचिका भरी
कीचड़ के दल-दल में नहीं गागर भरी
जैसे सागर का रमा ने छुआ गात
बजी अन्तर की शहनाई आस भरी

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