Tuesday, April 21, 2015

ना जाने कब कोई आ कर

टूटे दिल से नही बनती कोई कविता


                  रोशनी विश्वकर्मा




टूटे दिल से नही बनती कोई कविता,

नही जमती रंगों छंदों अलंकारों की महफिल.


विश्वास के टूटे तारों से नही सीलती 


आत्मा के फटे आवरण,


पर कटे परिंदे की तरह


बैठी हूँ मरी इच्छाओं के आँगन में,


जुटा नही पाती हिम्मत 


फ़िर से उड़ने की खुले आसमान में,


डर बैठा है कुंडली मारे,


ना जाने कब कोई आ कर,


फ़िर से पर काट ले जाये 


कर दे लहू लूहान इस कदर,


जनाजे के लिये भी कुछ ना बचे.

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