Friday, January 22, 2021

मरता देखा है बसन्त!!

 

दुःखो का है नहीं अन्त!

नहीं जानता मैं बसन्त!!


बचपन कैसा सिसक रहा?

बुढ़ापा भी तो दुबक रहा।

जिस पर भोजन वस्त्र नहीं,

अलावों को भी तरस रहा।

मजबूरी में बना सन्त!

मरता देखा है बसन्त!!


प्रेम नाम से घृणा हुई।

जीवन है बस छुई-मुई।

साथ किसी का पा न सका,

सपने बन उड़ गए रुई।

मिला नहीं है कोई पन्त!

मरता देखा है बसन्त!!


मैं पग-पग हूँ छला गया।

रगड़ा हूँ, ना मला गया।

औरों की तो छोड़ो बात,

अपनों से ही ठगा गया।

प्रेम नाम ले, तोड़े दन्त!

मरता देखा है बसन्त!!

 


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