अर्चना पाठक, होसंगाबाद
अतीत की फांस,
चुभती अंतर्मन में,
एक बार नहीं,
बार-बार,
हर बार,
जब भी झांकती,
बीते समय में।
मन है भटकता,
अतीत में जब भी।
अतीत की चुभन,
गहराती है समय के साथ।
मैं करती प्रयत्न भुलाने के,
निकल आती है विस्मृति से,
अवचेतन मन से,
मेरे न चाहते हुए भी।
किसी के पास है?
कोई तरीका भुलाने का,
बता दो मुझे।
चाही थी सबकी भलाई,
की भी अपनी क्षमता भर,
किंतु लगता है अब,
अपनों का साथ,
देते देते,
भूली पुरानी राहें,
नई भी खोजी,
किंतु
अपनी राह न पाई।
किसे दोष दूं?
सबकी अपनी-अपनी राह।
केवल कहा वाह!
और चले गए।
अपने एकांकीपन के लिए,
किसे दोष दूं?
किसे ठहराऊं,
अपराधी?
जबकि दूसरों को,
संवारने की आपाधापी में,
खुद को ही भुला दिया था मैंने!
आज जीवन के इस मोड़ पर,
नितान्त एकाकी,
कौन अपना और कौन पराया?
कितनों को दुलारा,
कितनों को ठुकराया?
जीवन रस!
किसका रहा जस का तस?
मन है सीजता,
प्यास अब भी विकल,
प्राण सरोवर सूखता।
प्यार की धरा,
सींचना चाहता है कोई,
मैं पीछे कदम हटाती,
चुपचाप।
अब प्यार में डूबने का,
साहस नहीं रहा।
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