सृष्टि की रचना होती है
नारी उर में, दीप सजाती, नर बिखराता ज्योती है।
प्रकृति-पुरुष के सम्मिलन से, सृष्टि की रचना होती है।।
भिन्न प्रकृति है, भिन्न मही है।
दोनों ही अपनी जगह सही हैं।
दोनों मिल जब साथ में चलते,
दानों की राह, आनन्द मयी है।
नर भी सुख से जी नहीं सकता, नारी जब भी रोती है।
प्रकृति-पुरुष के सम्मिलन से, सृष्टि की रचना होती है।।
आपस में संघर्ष ये कैसा?
किसी को बोलो न ऐसा-वैसा।
मिल विकास की राहें खुलतीं,
अविश्वास विध्वंस है प्रलय जैसा।
नर जब पथ से विचलित होता, नारी भी पथ खोती है।
प्रकृति-पुरुष के सम्मिलन से, सृष्टि की रचना होती है।।
सच पर ही विश्वास है पलता।
संबन्धों का पुष्प है खिलता।
समर्पण से अलगाव है मिटता,
मिट जाती है, सारी कटुता।
पारदर्शी व्यवहार ही समझो, मानवता का मोती है।
प्रकृति-पुरुष के सम्मिलन से, सृष्टि की रचना होती है।।
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