Wednesday, November 25, 2015

पारदर्शिता सुख की जननी

भावनाओं में जीते हैं जो, आप तो उनको मूरख कहतीं।

हानि-लाभ व्यापार आपका, बता दो जान, खुश हो रहतीं।

हमने जीवन, बस यूँ ही छोड़ा, गंगा जल बहता  सीधा है।

काश! कभी हो इच्छा आपकी, करो स्नान देख इसे बहती।

डरकर जीवन जीना जानम, हमने नहीं अब तक सीखा है।

अन्दर बाहर एक रहो बस, कृत्रिम, आदर्शों का विष तीखा है।

क्या छुपायें? क्यों छुपाये? जो भी किया वह, पाहन रेखा है।

पारदर्शिता सुख की जननी, निष्कपटता जीवन-गीता है।

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