नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
भौतिकता की भाग-दौड़ में, तुम, मशीन क्यों बनतीं नारी?
कोमलता के हाव-भाव तज, नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
माना बन्दिनी नहीं हो नर की।
जीवन संगिनी तो हो नर की।
प्रतिस्पर्धी बन भटक रहीं क्यों?
कौन दिखाए? राह तुम्हें घर की।
घर जैसी! स्वर्गिक रचना को, खुद विनिष्ट क्यों करती नारी?
कोमलता के हाव-भाव तज, नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
माना, भटका, नर निज पथ से।
भटक गया नर, निज जीवन से।
तुम्हारी प्रेरणा, प्रेम, ममता बिन,
कौन लाएगा? पथ पर फिर से?
नैसर्गिक सुन्दरता तजकर, अशान्ति में क्यों? जलती नारी।
कोमलता के हाव-भाव तज, नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
माना, कामना, विवश कर रहीं।
इच्छाएँ तुम्हें, अधीर कर रहीं।
रोको, नर को अंधी दौड़ से,
तुम क्यों? उसका भाग बन रहीं।
तुम ही जीवन की सृष्टा हो, भटक, जीवन क्यों हरतीं नारी?
कोमलता के हाव-भाव तज, नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
माना, तुम ही शक्ति पुंज हो।
लेकिन तुम ही प्रेम कुंज हो।
नर को अपने पथ से हटाकर,
हो जाओगी, तुम भी, लुंज हो।
संग-साथ संगीत है, सजता, नर को विलग क्यों करती नारी?
कोमलता के हाव-भाव तज, नैसर्गिक गुण, क्यों तजती नारी?
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