मानवी ही स्वीकार करो
देवी! कहकर, ना तुम पूजो, मानवी ही स्वीकार करो।
स्वाभाविक साथी है, नर की, इस सच को अंगीकार करो।
नर्क का द्वार, नारी को कहते।
अंधकार में, वे, नर रहते।
धर्म धुरी, धरणी, धात्री बिन,
अपूरणता का दंश हैं सहते।
धर्म के तत्व को, समझ न पाये, नारी पर अत्याचार करो।
देवी! कहकर, ना तुम पूजो, मानवी ही स्वीकार करो।।
धर्म के तत्व को, तुम पहचानो।
जीवन संगिनी की प्रकृति जानो।
आवश्यकतायें, आकाक्षायें, कुछ,
नारी की भी हैं, यह तुम मानो।
शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, इसे दो, पर्दा अस्वीकार करो।
देवी! कहकर, ना तुम पूजो, मानवी ही स्वीकार करो।।
बेटी-बेटे का भेद, ये कैसा?
बहिन को समझो, भाई जैसा।
ये घर तो, उसका अपना है,
ससुराल में भी, हाल हो ऐसा।
दान-दहेज का, पाप ये छोड़ो, स्वीकार अधिकार करो।
देवी! कहकर, ना तुम पूजो, मानवी ही स्वीकार करो।।
पराये घर की वस्तु न बेटी।
बहिन नहीं, भाई से हेटी।
जन्म लिया, यह घर अपना है,
ससुराल में भी, नहीं है चेटी।
सुखी रहोगे, सुख देकर के, सब कुछ देकर, प्यार करो।
देवी! कहकर, ना तुम पूजो, मानवी ही स्वीकार करो।।
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