नहीं कभी कोई, हित होता है
माँ, संतान के साथ है हँसती, रोती है, जब सुत रोता है।
मात-पिता से बढ़कर जग में, नहीं कभी कोई, हित होता है।।
मात-पिता से बनी यह काया।
संतान ही थी, धर्म, धन माया।
खाने को जब रोटी नहीं थी,
भूखी रह, माँ ने दूध पिलाया।
श्रवण कह हो मजाक उड़ातीं, मातृत्व से ही घर होता है।
मात-पिता से बढ़कर जग में, नहीं कभी कोई, हित होता है।।
मातृत्व से, है, सब मान तुम्हारा।
बदला नहीं है, पर गान तुम्हारा।
मात-पिता से, अस्तित्व जग में,
कहीं नहीं मैं, सब कुछ हारा।
मात-पिता से अलग करे जो, मित्र नहीं, शत्रु होता है।
मात-पिता से बढ़कर जग में, नहीं कभी कोई, हित होता है।।
अब नहीं तुम्हें है, हमारी जरूरत।
विरोध से हैं, रिश्ते बदसूरत।
हम तो प्रेम की भाषा समझे,
नफरत पाली, तुमने खुबसूरत।
विरोध और विद्वेष पाल, जग में नहीं कोई, खुश होता है।
मात-पिता से बढ़कर जग में, नहीं कभी कोई होता है।।
और नहीं कोई, मैं ही दोषी।
हाथ थामा था, थी मदहोशी।
समझ न पाया, तुम्हें आज तक,
समझा था मैंने, तुम्हें संतोषी।
चाह थी मेरी ज्ञान पाओ कुछ, ज्ञान से नारी का, हित होता है।
मात-पिता से बढ़कर जग में, नहीं कभी कोई, हित होता है।।
No comments:
Post a Comment
आप यहां पधारे धन्यवाद. अपने आगमन की निशानी के रूप में अपनी टिप्पणी छोड़े, ब्लोग के बारे में अपने विचारों से अवगत करावें.