साथ किसी के, रो न सके
साथ के सपने अपने भी थे, साकार कभी भी हो न सके।
पीड़ाओं में, हँसना पड़ता, साथ किसी के, रो न सके।।
किसी का बुरा, कभी न चाहा।
किसी के दुख में, कहा न आहा।
अनजानों को गले लगाकर,
सबको नेह से, था अवगाहा।
हमने सबको, अपना समझा, पराया किसी को कह न सके।
पीड़ाओं में, हँसना पड़ता, साथ किसी के, रो न सके।।
धोखे से साथ में हमें फंसाया।
छल-कपट का जाल विछाया।
प्रहार आत्मा पर करने को,
विश्वासघात का अस्त्र चलाया।
षड्यंत्रों से हमको घेरा, सच के सपने, खो न सके।
पीड़ाओं में, हँसना पड़ता, साथ किसी के, रो न सके।।
हमने सब कुछ, सौंपा जिसको।
उसने मूरख, समझा हमको।
हमने सब कुछ खोल दिया था,
उसने सब कुछ छिपाया खुदको।
प्रेम बिना, है खेती सूखी, विश्वास के बीज, बो न सके।
पीड़ाओं में, हँसना पड़ता, साथ किसी के, रो न सके।।
No comments:
Post a Comment
आप यहां पधारे धन्यवाद. अपने आगमन की निशानी के रूप में अपनी टिप्पणी छोड़े, ब्लोग के बारे में अपने विचारों से अवगत करावें.