नहीं चाह बाकी अब कोई।
बेशर्मी की ओढ़ी लोई।
पति पत्नी की भेंट चढ़ गया,
पत्नी जा यारों संग सोई।
जीने की अब चाह है खोई।
फसल काटते, जो थी बोई।
आँख बंद विश्वास किया था,
घात है गहरा, आश न कोई।
मिलने की कोई चाह नहीं है।
वियोग की भी आह नहीं है।
भंवरों को सौंपा है खुद को,
खोजते कोई राह नहीं हैं।
विश्वासघात की चोट है गहरी।
हम गंवार हैं, तुम हो शहरी।
कपट से कंचन महल बनाओ,
लूटेंगे तुम्हें, तुम्हारे प्रहरी।
जिसकी कोई चाह नहीं है।
बाकी कोई राह नहीं है।
सब कुछ मिटा दिया है तुमने,
मिटने की परवाह नहीं हैं।
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