यदि अंतर में प्रेम बसा हो।
नारी है जग जननी जग में, यदि अंतर में प्रेम बसा हो।
मन-मंदिर में मोह की मूरत, मानिनी में अरमान सजा हो।।
प्रेम में वह बहती नदियाँ हैं।
इंतजार में, बहती सदियाँ हैं।
लक्ष्य हेतु कुछ भी कर जाती,
कामना की खिलतीं कलियाँ हैं।
मुस्कान पर जग दीवाना, क्रोध में काल का वाद्य बजा हो।
नारी है जग जननी जग में, यदि अंतर में प्रेम बसा हो।।
पल पल करतीं, सब कुछ अर्पण।
स्पष्टवादिनी, बनती दर्पण।
प्रेम में हैं, सर्वस्व लुटातीं,
असंतुष्ट हो, करती तर्पण।
शक्ति पुंज, सृजन की देवी, सब कुछ देती यदि रजा हो।
नारी है जग जननी जग में, यदि अंतर में प्रेम बसा हो।।
अज्ञानी, जो पिछड़ी कहते।
गृहिणी के बिन, घर ना रहते।
सुता, बहिन, पत्नी माता बिन,
उच्च भवन को घर ना कहते।
नर-नारी मिल साथ चलें जब, पथ, पाथेय गंतव्य सजा हो।
नारी है जग जननी जग में, यदि अंतर में प्रेम बसा हो।।
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