मनोज ने बोर्ड कक्षाओं को ध्यान में रखकर अपने बेटे प्रभात की देखभाल के लिए लगभग चार महीने के लिए अर्धवेतन अवकाश ले लिया जिसमें आधा वेतन ही मिलना था। किंतु मनोज को अब वेतन या अपने जाॅब की चिन्ता नहीं थी। जब अपनों के प्राणों पर संकट बन आये तो व्यक्ति अपने प्राणों की चिंता भी छोड़ देता है। जाॅब की तो बात ही क्या है? यहाँ तो अपने बेटे के भविष्य का प्रश्न था। केवल भविष्य ही क्यों? झूठी, धोखेबाज व कपटी लालची औरत कुछ भी कर सकती थी। मनोज का बेटा ही उसका एकमात्र वारिस भी था। ऐसी स्थिति में वह लालची औरत उसके प्राणों के लिए संकट भी बन सकती थी।
अपने बेटे के प्राणों की रक्षा के प्रयत्न के बाद अब मनोज अपने बेटे को तनावमुक्त अध्ययन के अवसर भी उपलब्ध करवाना चाहता था। मनोज सभी प्रकार के तनाव के होते हुए भी अपने बेटे को तनावमुक्त माहोल प्रदान करने की हर संभव कोशिश करने लगा। मनोज का बेटा भी काफी समझदार था, वह सब कुछ नजरअंदाज करके अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करके परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त हो गया। मनोज का मानना था कि कम से कम माया प्रभात की परीक्षाओं तक कोई व्यवधान नहीं डालेगी। लेकिन मनोज के मानने से क्या होने वाला था? यदि माया सीधे और सरल मार्ग की पथिक होती तो मनोज को झूठ बोलकर कपटपूर्वक शादी के जाल में ही क्यों फंसाती? सच्ची व समर्पित पत्नी और माँ बनने लायक होती तो शायद अभी तक कुँआरी नहीं बैठी होती?
सच्ची व समर्पित पत्नी और माँ की भूमिका निभाती तो मनोज को अपने बेटे की परीक्षाओं के लिए अपने विभाग से अर्ध-वेतन अवकाश क्यों लेना पड़ता? नौकरी-पेशा लोग सामान्यतः वेतन कटवाकर अवकाश लेना अच्छा नहीं मानते। किंतु मनोज का जीवन सामान्य तो न था? सब कुछ असामान्य घटित हो रहा था उसके साथ। उसके साथी उसे समझाते क्यों व्यर्थ में इतने रूपये का नुकसान कर रहे हो। बेटा अब तक जिस प्रकार पढ़ा है। अब भी पढ़ लेगा किंतु मनोज को ही पता था कि उसके बेटे को कितना झेलना पड़ा है? वह समझता था कि बोर्ड की अन्तिम परीक्षा में वह बेटे का जितना ख्याल रख सके उतना ही कम है?
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