Thursday, August 24, 2017

दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम-२०

ऐसे तथाकथित प्रेम प्रदर्शकों के तर्क बड़ अजीब ही होते हैं। यदि आप चाय नहीं पीते तो वे कहेंगे। अरे भाई! प्रेम में तो लोग जहर भी पी लेते हैं, आप हमारे कहने से चाय भी नहीं पी सकते? बड़ा अजीब और बोझ तले दबा देने वाला भारी तर्क है। वे यह भी कह सकते हैं कि अरे हमारे लिए एक दिन ही पी लीजिए। एक दिन से क्या फर्क पड़ता है? अब एक दिन से कोई फर्क नहीं पड़ता तो वे सामने वाले की इच्छा के विरूद्ध क्यों अपनी मनमर्जी उसके ऊपर थोपने का प्रयत्न करते हैं? अब यह उन तर्कजीवियों को कौन समझाये कि कोई प्रेम में आकर जहर क्यों पिलायेगा? यदि हम किसी को प्रेम करते हैं तो उसकी इच्छा व उसके हित को ध्यान में रखेंगे कि नहीं। उसकी इच्छा के अनुरूप उसके स्वास्थ्य के हित जो है, उसी वस्तु या पदार्थ को खिलाकर अपना प्रेम प्रदर्शन करें तो उनकी क्या हानि है? जिसे हम प्रेम करते हैं, उसको प्रसन्न रखकर, उसके चेहरे पर मुस्कान देखकर हमारी प्रसन्नता भी बढ़ेगी। जहर खिलाने वाला कैसा प्रेम? अब यही तर्क लोग शराब पिलाने के लिए भी दे सकते हैं। माँसाहार के लिए भी दे सकते हैं। इस बनाबटी प्रेम प्रदर्शकों से भगवान बचाये। मनोज को माया के माया जाल की शादी के उस नाटक में ऐसे लोग बहुतायत में दिखायी दे रहे थे। विशेष कर महिलाएँ नाटकीय प्रेम प्रदर्शन में सिद्धहस्त थी। मनोज को उन बनाबटी प्रेम प्रदर्शकों से पीछा छुड़ाने में पसीना आ गया। वहाँ खाना-पीना तो दूर की कोड़ी थी। मनोज तनाव का शिकार हो रहा था। वह केवल इस प्रयास में था कि इस घुटन भरे माहोल से किस प्रकार निकला जाय?
मनोज को उस समय बड़ा ही अजीब लगा जब जोर देकर उसे खाना खाने के लिए एक हाॅल में ले जाया गया। वहाँ कोई खाना नहीं खा रहा था। अधिकांशतः महिलाएं बैठी हुई थीं। वहाँ थाली में खाना लाया गया और माया अपने हाथों से मनोज को खाना खिलाने लगी, क्या नाटक था? जो औरत धोखा देकर पति के नाम पर किसी पुरूष को फँसाने का प्रयास कर रही हो; वही ऐसा नाटक कर सकती है। मनोज उस माहोल में खाना तो क्या रहना भी पसन्द नहीं कर रहा था। वह जितना जल्दी संभव हो सके, वहाँ से निकल जाना चाहता था। माया के हाथ से उसे एक या दो ग्रास लेने ही पड़े। कभी-कभी मनुष्य को अपनी इच्छा के विरूद्ध भी बहुत कुछ करना पड़ जाता है। ऐसा मनोज के साथ भी हुआ। उसने मन मारकर भी माया के हाथ से कुछ ग्रास खा ही लिए और उठ खड़ा हुआ। बार-बार आग्रह के बाबजूद उसे वहाँ खाना खाना रास नहीं आ रहा था। अच्छा ही हुआ, वे दो ग्रास इतने महँगे होंगे; उस समय मनोज नहीं जानता था। किंतु कुछ दुर्घटनाएं ऐसी होती हैं, जिन्हें जीवन भर भुलाना संभव नहीं होता है, मनोज के लिए माया के शादी के षड्यन्त्र में फँसना भी ऐसी ही दुर्घटना थी। जिसका आभास उसे पहले दिन से ही था। मनोज को अपने आप पर हँसी आती है। मनुष्य भी अजीब प्राणी है। उसे आभास हो जाय कि उसकी मृत्यु निकट है, उसके बाबजूद वह अधिक से अधिक जीने के प्रयत्न करता है। मनोज को प्रत्येक कदम पर माया के झूठ का आभास हो रहा था। उसके बाबजूद वह उसकी बात को सच मानकर उसके मायाजाल में फँसता चला गया।

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