Monday, July 14, 2008

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है

जो भी तुमको प्यारा है


तुमने तन ही दिया भले हो, हमने मन भी बारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

नहीं किसी से ईर्ष्या हमको

नहीं बाधंना चाहें तुमको।

हमें भले ही ना मिल पाया,

जीवन-रस मिल जाये तुमको।

हिमगिरि तब था भाया हमको, अब सागर का किनारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

नेत्रों से जल, कभी न निकसे

ह्रदय-कुमुद रहे हरदम विकसे।

अधरों पर मुस्कान रहे नित,

आप नहीं, अब हम ही सिसके।

स्वार्थों की मारी मति ने ही तो, प्रेम से छीना सहारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

मृग-मरीचिका है अब अपनी,

मरूथल में है माला जपनी।

अपनी जान जहां में खोई,

नहीं किसी की जान हड़पनी।

विस्तृत जग आमिन्त्रत करता, याद तुम्हारी कारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

क्षिति जल पावक गगन समीरा

तुम बिन कैसे भये अधीरा ?

अवशोषण नासूर बना अब,

कौन लगाये इसको चीरा?

धरा ही नहीं, आसमान भी, देखो हमने फाड़ा है।

जिसने सबको हरा दिया है, वह खुद से ही हारा है।।

जल भी, हमने नहीं बख्शा,

वायु भी फ़ैलाये गमछा।

पावक को भी बांधा नर ने,

कब तक इसका चलेगा चमचा।

प्रकृति के आड़ोलन ने ही, भय का झण्डा गाड़ा है।

जिसने सबको हरा दिया है, वह खुद से ही हारा है।।

3 comments:

  1. बहुत बढिया रचना है।बधाई।

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  2. जिसने सबको हरा दिया है, वह खुद से ही हारा है।।

    वाह! वाह!

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  3. अच्छा है

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