Monday, September 11, 2017

विवादास्पद वैवाहिक रिश्तों के कारण होतीं हत्याएं/आत्म्हत्याएं

दुःखद स्थिति

कल प्राप्त एक समाचार के अनुसार मेरे एक साथी अध्यापक मिश्राजी की भांजी की वैवाहिक विवादों के कारण हत्या कर दी गयी। उसकी शादी दो वर्ष पूर्व ही हुई थी। उसके एक वर्ष का एक बेटा है, जो शायद यह भी नहीं जानता होगा कि माँ क्या होती है? और उससे माँ का आँचल क्यों उठ गया। घटना के बाद स्वाभाविक रूप से उसकी ससुराल वालों की गिरफ्दारी हो गयी है। निसंदेह मुकदमा चलेगा और अदालती कार्यवाही के पश्चात् उचित सजा भी दोषी लोगों को मिलेगी। जो भी हो उस युवती के प्राण वापस नहीं आ सकते। उसके मासूम बेटे के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका आकलन अभी करना संभव नहीं है। न केवल उसकी माँ की हत्या हुई है, वरन उसका पिता व पूरा परिवार कारागार में बंद है। उसकी देखभाल कौन करेगा? भविष्य में वह बच्चा जब समझदार होगा तो उसके मस्तिष्क पर इसका क्या प्रभाव होगा? यह गंभीर समालोचना का विषय है। एक प्रकार से दोनों परिवार बर्बाद हो गये। 
मैं यहाँ इस घटना की सजा के पहलू पर या निर्मम हत्यारों की आलोचना के पहलू पर चर्चा नहीं करूँगा। उनके पास भी अपने तर्क हो सकते हैं। इस प्रकार की सैकड़ों हत्याएँ या आत्महत्याएँ वैवाहिक विवादों व मतभेदों की स्थिति में होती हैं। एक दिन मेरे सामने भी वैवाहिक विवाद के कारण ऐसी स्थिति आ गयी थी कि मुझे प्रतीत होता था कि ऐसे जीवन का कोई अर्थ नहीं है। मैं कुछ गलत न कर बैठूँ, इस सोच के साथ मेरे माताजी, पिताजी और बहिन ने मुझे सभाल लिया था। वे एक मिनट के लिए मुझे अकेले नहीं छोड़ते थे। एक पड़ोसी साथी ने भी मानसिक संबल दिया था। वस्तुतः ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है। हजारों हत्याओं या आत्महत्याओं को रोका जा सकता है। मासूमों के जीवन को संवारा जा सकता है। हजारों परिवारों को बर्बाद होने से बचाया जा सकता है। बशर्ते ये तथाकथित पति या पत्नी सीधे रास्ते को अपनाकर दूसरे को बर्बाद करने के इरादे छोड़कर प्यार से अलग हो जायं!
इस प्रकार की घटनाओं के लिए केवल हत्या या आत्महत्या करने वाला ही दोषी नहीं है। पति-पत्नी के रिश्ते को जबरन सामाजिक या कानूनी आधार पर चलाये रखने वाली संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था ही दोषी है। पति-पत्नी के रिश्ते में गहरा विश्वास आवश्यक है। विश्वास किसी कानून या सामाजिक दबाब से पैदा नहीं हो सकता। यह दोनों के मध्य ईमानदारी, सच्चाई व समर्पण से पैदा होता है। यदि दोनों के रिश्तों में यह विश्वास न हो, दोनों में से कोई भी एक धोखेबाज, षड्यंत्रकर्ता व छलकपट से परिपूर्ण हो तो वैवाहिक रिश्ते का चलना असंभव हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को पारिवारिक, सामाजिक या कानूनी दबाब से साथ-साथ रहने को मजबूर करना न केवल उन दोनों के लिए घातक है, वरन उन दोनों परिवारों व संपूर्ण समाज के लिए भी दुष्प्रभाव छोड़ने वाला है। अतः वैवाहिक रिश्तों से जुड़े सभी पक्षों को यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि गंभीर मतभेदों व मनभेदों वाले पति-पत्नी या धोखे से झूठ बोलकर शादी के जाल में फँसाने वाले पति-पत्नी को सरलता से अलग होने की छूट दी जाय।
इस प्रकार के तथाकथित पति-पत्नी को भी समझदारी का परिचय देना चाहिए। मैंने तथाकथित शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है क्योंकि जिस रिश्ते में विश्वास और समर्पण ही नहीं है। वास्तव में वहाँ कोई रिश्ता ही नहीं होता। वे केवल झूठा दिखावा कर रहे होते हैं। अतः उन दोनों को सोचना चाहिए कि वे प्रेम पूर्वक रिश्ते को निभा नहीं सकते तो प्रेमपूर्वक आपसी बातचीत के आधार पर अलग हो जायँ। यदि वे मित्र नहीं बन सकते तो कम से कम शत्रु भी न बनें। दोनों परिवारों के लोगों, उनके मित्रों व समाज के अन्य समझदार नागरिकों को भी इसी प्रकार की समझाइश करके उन लोगों में इस प्रकार की समझदारी विकसित करने के प्रयास करने चाहिए। ताकि इस प्रकार की घटनाओं को कम करके लाखों प्राणों को वैवाहिक वैदी में होम होने से बचाया जा सके। मासूमों के भविष्य को संवारा जा सके। परिवारों को बर्बाद होने से बचाया जा सके। समाज को इस प्रकार के वैवाहिक विवादों के दुष्प्रभावों से बचाया जा सके। यही नहीं अपने देश की न्यायप्रणाली को अनावश्यक मुकदमों के दबाब से बचाया जा सके। दुःखद यह है कि इस प्रकार के प्रयास हो नहीं रहे हैं। इसके विपरीत जानबूझकर झूठी मुकदमेंबाजी को बढ़ावा दिया जाता है। दोनों पक्षों को भड़काया जाता है। दूसरे पक्ष को झुकाने की झूठे आत्मसम्मान की आग को भड़काया जाता है। परिणामस्वरूप न केवल उन तथाकथित पति-पत्नी का जीवन बर्बाद होता है, वरन दोनों परिवार बर्बाद हो जाते हैं और समाज पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हैं।

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