किसी और का दोष ना, भोग रहे निज कर्म।
मन की कर कहते रहे, यही हमारा धर्म।।
चेहरे हैं मुस्काते, अन्दर रहे तनाव।
दवा पर्स में रहत है, छल ही करत जनाब।।
शिकवा-शिकायत भूलें, याद रखें बस कर्म।
क्षण-क्षण का उपयोग कर, बढ़ें यही है धर्म।।
लघु जीवन कुछ हाथ ना, हाथ हमारे कर्म।
संचय ना तू कर्म कर, यही धर्म का मर्म।।
धोखा दे, छलना करे, करे न अपना कर्म।
मुफ्तखोर बनकर भला, क्या जीवन? क्या? शर्म।।
झूठ और छल छदम से, नष्ट होत सत्कर्म।
तनाव ही बस मिलत है, जो करते दुष्कर्म।।
अपने बल पर बढ़त हैं, जो करते हैं कर्म।
पल-पल का उपयोग कर, यह विकास का मर्म।।
धोखा दे कर लूटकर, नहीं करत हैं शर्म।
रोम-रोम है छल भरा, घण्टी बजाकर धर्म।।
धर्म की बस बात करत, फैलाते पाखण्ड।
लूटन को तत्पर रहत, कर समाज के खण्ड।।
मन मन्दिर दूषण भरा, खोजे मन्दिर धर्म।
कर्तव्य नहीं, हक चाहिए, बने बात बेशर्म।।
बिना वृक्ष फल चाहिए, सफल बने बिन कर्म।
छल से ही माँगत दुआ, ढीठ बने बेशर्म।।
मन्दिर-मस्जिद छोड़कर, कर ले अपना कर्म।
सबके हित में कर्म कर, ये ही है सच धर्म।।
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