Sunday, September 7, 2008

बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा

मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

मैं भारत का/की शिक्षित नर/नारी हूं¡
मैं हूं सशक्त, नहीं बिचारा/बिचारी हूं।
मैं जानता/जानती चैंटिंग और ब्लागिंग
मैं अंग्रेजी में धारा-प्रवाह,
लिख व बोल सकता/सकती हूं¡
मैं गालियां दे सकता/सकती हूं¡
भारतीय संस्कृति, विरासत और परंपराओं को,
मैं शादी, परिवार व समाज को,
गरिया सकता/सकती हूं¡
सब जायं¡ जहन्नुम में,
मैं सबको अपने ठेंगे पर रखता/रखती हूँ
अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वछंदता की खातिर,
मैं नारी को देखना चाहता/चाहती हूं
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं,
पूर्णत: स्वतंत्र और स्वछन्द भी,
शादी, परिवार व समाज की,
समस्त मर्यादाओं से मुक्त
आज के भारतीय नर और नारी शिक्षित हैं,
वे नहीं रह सकते बनकर एक-दूसरे के पूरक
औरत को मर्द की और मर्द को औरत की,
वश है जरूरत,
दोनों समान हैं,
दोनों के लिए खुला आसमान है,
समलैंगिक सम्बन्धों को भी सम्मान है
जरूरतें पूरी करना बड़ा आसान है,
हम अपनी जरूरतें! कर लें पूरी,
कैसे भी, कहीं से भी,
किसी के साथ रहकर या
किसी को साथ रखकर
या फिर चलते फिरते,
ऑफिस में काम करते।
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कर सकता/सकती हू¡ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं झूठ बोलने में पारंगत,
भ्रष्टाचार में सिद्धहस्त,
मैं अपने में ही रहता/रहती मस्त,
सत्य का सूरज कर दूं अस्त,
ईमानदारी के हौसले पस्त।
कथनी से ही छा जाऊं जगत में
शराब पीकर, मांस खाकर,बन जाऊं भगत मैं।
मैं, जो बोलता/बोलती हूं,
जो करता/करती हूं,
दोनों में दूर-दूर तक,
खोज न पाये कोई रिश्ता,
भले ही आ जाये फरिश्ता।
मैं बोलकर और लिखकर ही सम्मान पाता/पाती हूं,
साथ में दौलत भी कमाता/कमाती हूं।
गधे को तो क्या?
दुश्मन को भी बाप बनाता/बनाती हूं,
किसमें है हिम्मत
जो मेरी करनी को देखे
आखिर प्राइवेसी भी कोई चीज होती है!
तुम्हे क्या वह किसके साथ सोता या सोती है?
अरे भाई!
निजत्व का सम्मान करो!!
जाओ! अपना काम करो।
तुम हो ही क्या चीज?
अपने आदर्शों के झोले को,
उठाये फिरते/फिरती हो!
केवल ठगे जाते/जाती हो!
किसी को नहीं ठगते/ठगती हो।
शादी करके एक पत्नी या पति के साथ
रहने वाले या रहने वाली,
दो जून की रोटी के लिए,
रात-दिन परिश्रम करने वाले या करने वाली
ईमानदारी और सत्य के व्यसनी मूर्खो की,
बात करने वाले या करनी वाली,
जाओ आगे बढ़ो!
यह दुनिया¡ तुम्हारी नहीं, मेरी है,
क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है,
मेरे पास सोने की ढेरी सजी है।
मैं खरीद सकता/सकती हूं कुछ भी,
सारी सुख-सुविधाए¡,
यहाँ तक कि बिस्तर के साथी,
नर-नारी को भी खरीदना संभव है,
आत्मा को जिन्दा रखकर,
आत्मनिर्भर बनना असंभव है।
मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं आजाद भारत का/की,
आजाद नागरिक हूं,
स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा,
फहराऊंगा/ फहराऊंगी।
मिठाई बांटकर खुशियां,
मनाऊंगा/मनाऊंगी।
पीटकर ताली,
लोग,मिठाई खाने में हो जायेंगे मस्त,
मैं तो वश कमीशन खाऊंगा/खाऊंगी।
जरूरत पड़ी तो आतंकवादियों से भी हाथ,
मिलाऊंगा/ मिलाऊंगी!
आखिर वे भी हमारे वोटर हैं,
उनके लिए कानून सरल बनाऊंगा/बनाऊंगी।
बाजार तो भाई!आज युग की है जरूरत,
दोस्तो देखो बाजार है, कितना खुबसूरत,
जिसको आती है कला,
रुपया बनाने, छापने या लूटने की,
वही सबसे है भला,
खरीदना या बेचना नहीं है आसान,
बाजार में मच जाता है घमासान,
सांसदों, विधायकों या मन्त्रियों की बिक्री मैंने देखी है,
हम क्या कर सकते यह तो ईश्वर की लेखी है।
मैं भी अपनी सरकार बनाऊं!
बड़ा सा सरकारी पद पा जाऊं
स्वयं मलाई खाकर,
दूसरों को भी खिलाऊं!
नहीं चाहिए मुझे, ईमानदारी का तमगा,
चाहत है यही वश सफल कहाऊं!
हिन्दी का नाम जपकर,
अंग्रेजी का झण्डा लहराऊं!!

3 comments:

  1. संतोष भाई !
    जो आक्रोश राष्ट्रप्रेमी की लेखनी व्यक्त कर रही है, यही तो सच्चाई है यहाँ की, हमारे आसपास की, मगर व्यथित क्यों हो भाई, हम लोगों ने जन्म ही ऐसे काल में हुआ है !

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  2. सतीशजी
    काल का दोष नहीं, प्रत्येक काल में बुद्धि ने स्वार्थ साधन ही किया है. जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, हम बुद्धिवादी होते जा रहे हैं, समस्यायें बढ्ती जा रही हैं. जब तक बुद्धि हृदय पर हावी रहेगी यही हाल होगा. बुद्धि पर भावना की लगाम आवश्यक है. आज से एक हजार वर्ष पहले क्या पर्यावरण के प्रचार के लिये इतना धन व्यय किया जाता था फ़िर पर्यावरण की इतनी भयावह स्थिति क्यों नहीं थी? आज नारी नर को नियंत्रित करने के स्थान पर खुद दानवी बनने की और अग्रसर है, समलैंगिक सम्ब्न्धों की वकालत हो रहीं है क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं? नहीं तो हम क्या करें? विचार का नहीं, आचरण का विषय है.

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  3. सतीशजी
    काल का दोष नहीं, प्रत्येक काल में बुद्धि ने स्वार्थ साधन ही किया है. जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, हम बुद्धिवादी होते जा रहे हैं, समस्यायें बढ्ती जा रही हैं. जब तक बुद्धि हृदय पर हावी रहेगी यही हाल होगा. बुद्धि पर भावना की लगाम आवश्यक है. आज से एक हजार वर्ष पहले क्या पर्यावरण के प्रचार के लिये इतना धन व्यय किया जाता था फ़िर पर्यावरण की इतनी भयावह स्थिति क्यों नहीं थी? आज नारी नर को नियंत्रित करने के स्थान पर खुद दानवी बनने की और अग्रसर है, समलैंगिक सम्ब्न्धों की वकालत हो रहीं है क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं? नहीं तो हम क्या करें? विचार का नहीं, आचरण का विषय है.

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