मानव की सामान्य प्रवृत्ति है कि वह अपने द्वारा किये प्रत्येक विशष्ट कृत्य के लिए प्रशंसा या पुरूस्कार प्राप्त करना चाहता है। पुरुस्कार या प्रशंसा उसके कृत्य की ही नहीं , कर्ता की भी स्वीकृति है। प्रत्येक व्यक्ति पुरुष हो या महिला सामाजिक स्वीकृति या सम्मान की आकांक्षा रखता है। वे व्यक्ति भी जो धन, पद और संबंधों से मोह तोड़कर संन्यास ग्रहण कर चुके हैं, सम्मान ही नहीं ईश्वर की तरह पुजना पसंद करते हैं। सम्मान, पुरुस्कार, यश से मोह तोड़ना स्त्री/पुरुष , धन, पद से संबंध तोड़ने से दुष्कर कार्य है। श्रेष्ठ कृत्य के लिए पुरस्कार व कुकृत्य के लिए दंड व्यक्ति के उन्नयन व समाज के विकास में योग देतें है।
हम अच्छे कृत्य के लिए पुरस्कार की आकांक्षा तो रखते हैं, किन्तु कुकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराना पसंद नहीं करते। कुतर्क का सहारा लेकर कुकृत्य के लिए दूसरे को दायीत्वधीन ठहराने की कोशिश करते हैं। यदि उत्तरदायित्व टालने के हमारे प्रयास असफल रहते हैं तो माफी मांग कर दंड से बचने के प्रयास करते हैं। जिस प्रसन्नता के साथ सम्मान या पुरस्कार ग्रहण करते हैं, उसी प्रसन्नता के साथ निंदा तथा दंड को भी ग्रहण करना चाहिऐ। हमको माफी न मांग कर आगे बढकर दंड की मांग व ग्रहण करना चाहिऐ। माफी हमारी कमजोरी का प्रतीक है और कमजोरी को पुष्ट करती है, दंड ही कुकृत्य का परिमार्जन कर हमारा उन्नयन करके, हमारी आतंरिक व बाह्य शक्ति को पुष्ट करके, समाज के विकास को सुनुश्चित करता है। हमने निर्णय किया, क्रियान्वयन किया फिर उसके अच्छे या बुरे परिणामों को भी प्रसन्नता व स्वाभिमान के साथ स्वीकारने में हिचकिचाना नहीं चाहिऐ। कुकृत्य के लिए दंड का भोग करना ही सच्चा प्रायश्चित है, माफी मांगना नहीं।
धर्म, कर्म और शिक्षा- विवेकानन्द के सन्दर्भ में
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शिक्षा मानव विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता है। इस तथ्य पर सार्वकालिक
सर्वसहमति रही है। शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों को लेकर विभिन्न समाजों में
मतान्तर रहा...
1 week ago
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